अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - चन्द्रः
छन्दः - एकावसानानिचृद्विषमात्रिपाद्गायत्री
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
चन्द्र॒ यत्ते॒ तप॒स्तेन॒ तं प्रति॑ तप॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥
स्वर सहित पद पाठचन्द्र॑ । यत् । ते॒ । तप॑: । तेन॑ । तम् । प्रति॑ । त॒प॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
चन्द्र यत्ते तपस्तेन तं प्रति तप यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥
स्वर रहित पद पाठचन्द्र । यत् । ते । तप: । तेन । तम् । प्रति । तप । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥२२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
विषय - कुप्रयोग के त्याग के लिये उपदेश।
पदार्थ -
(चन्द्र) हे चन्द्र [चन्द्रमण्डल !] (यत्) जो (ते) तेरा (तपः) प्रताप है, (तेन) उससे (तम् प्रति) उस (दोष) पर (तप) प्रतापी हो, (यः) जो (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) अप्रिय करे, (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) अप्रिय करें ॥१॥
भावार्थ - शीतलस्वभाव चन्द्रमा स्वभावतः अपनी किरणों से अनिष्टों को हटाकर अन्न आदि ओषधियों को पुष्ट करके प्राणियों को आनन्द देता है। परन्तु उसी चन्द्रमा के कुप्रयोग से मनुष्य पागल [Lunatic] और घोड़े आदि पशु रोगी हो जाते हैं। इस कुप्रयोग का त्याग करके सुप्रयोग से आनन्द प्राप्त करना चाहिये ॥१॥
टिप्पणी -
१–चन्द्र। अ० १।३।४। हे आह्लादक चन्द्रलोक ! ॥