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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 4
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - विश्वकर्मा छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - विश्वकर्मा सूक्त

    घो॒रा ऋष॑यो॒ नमो॑ अस्त्वेभ्य॒श्चक्षु॒र्यदे॑षां॒ मन॑सश्च स॒त्यम्। बृह॒स्पत॑ये महिष द्यु॒मन्नमो॒ विश्व॑कर्म॒न्नम॑स्ते पा॒ह्यस्मान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घो॒रा: । ऋष॑य: । नम॑: । अ॒स्तु॒ । ए॒भ्य॒: । चक्षु॑: । यत् । ए॒षा॒म् । मन॑स: । च॒ । स॒त्यम् । बृह॒स्पत॑ये । म॒हि॒ष॒ । द्यु॒ऽमत् । नम॑: । विश्व॑ऽकर्मन् । नम॑: । ते॒ । पा॒हि॒ । अ॒स्मान् ॥३५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घोरा ऋषयो नमो अस्त्वेभ्यश्चक्षुर्यदेषां मनसश्च सत्यम्। बृहस्पतये महिष द्युमन्नमो विश्वकर्मन्नमस्ते पाह्यस्मान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घोरा: । ऋषय: । नम: । अस्तु । एभ्य: । चक्षु: । यत् । एषाम् । मनस: । च । सत्यम् । बृहस्पतये । महिष । द्युऽमत् । नम: । विश्वऽकर्मन् । नम: । ते । पाहि । अस्मान् ॥३५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (ऋषयः) सूक्ष्मदर्शी पुरुष (घोराः) [पाप कर्मों पर] क्रूर होते हैं, (एभ्यः) उन [ऋषियों] को (नमः) अन्न वा नमस्कार (अस्तु) होवे, (यत्) क्योंकि (एषाम्) उन [ऋषियों] के (मनसः) मन की (चक्षुः) आँख (च) निश्चय करके (सत्यम्) यथार्थ [देखनेवाली] है। (महिष) हे पूजनीय परमेश्वर ! (बृहस्पतये) सब बड़े-बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी [आप] को (द्युमत्) स्पष्ट (नमः) नमस्कार है, (विश्वकर्मन्) हे संसार के रचनेवाले ! (नमस्ते) तेरेलिये नमस्कार है, (अस्मान्) हमारी (पाहि) रक्षा कर ॥४॥

    भावार्थ - जिन महात्मा आप्त ऋषियों के मानसिक, वाचिक और कायिक कर्म, संसार को दुःख से मुक्त करने के लिये होते हैं, उनके उपदेशों को सब मनुष्य प्रीतिपूर्वक ग्रहण करें और जो परमेश्वर समस्त सृष्टि का कर्त्ता-धर्त्ता है, उसके उपकारों को हृदय में धारण करके उसकी उपासना करें और सदा पुरुषार्थ करके श्रेष्ठों की रक्षा करते रहें ॥४॥ (महिष) के स्थान पर सायणभाष्य में [महि सत्] दो पद हैं ॥

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