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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 138

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 138/ मन्त्र 1
    सूक्त - वत्सः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त १३८

    म॒हाँ इन्द्रो॒ य ओज॑सा प॒र्जन्यो॑ वृष्टि॒माँ इ॑व। स्तोमै॑र्व॒त्सस्य॑ वावृधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हान् । इन्द्र॑: । य: । ओज॑सा । प॒र्जन्य॑: । वृ॒ष्टि॒मान्ऽइ॑व ॥ स्तोमै॑: । व॒त्सस्य॑ । व॒वृ॒धे॒ ॥१३८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महाँ इन्द्रो य ओजसा पर्जन्यो वृष्टिमाँ इव। स्तोमैर्वत्सस्य वावृधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान् । इन्द्र: । य: । ओजसा । पर्जन्य: । वृष्टिमान्ऽइव ॥ स्तोमै: । वत्सस्य । ववृधे ॥१३८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 138; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (यः) जो (महान्) महान् [पूजनीय] (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (ओजसा) अपने बल से (वृष्टिमान्) मेहवाले (पर्जन्यः इव) बादल के समान है, [वह] (वत्सस्य) शास्त्रों के कहनेवाले [आचार्य आदि] के (स्तोमैः) उत्तम गुणों के व्याख्यानों से (वावृधे) बढ़ा है ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य गुरुजनों से शिक्षा पाकर बरसनेवाले बादल के समान उपकार करके पूजनीय होवे ॥१॥

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