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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 25

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२५

    य॒ज्ञैरथ॑र्वा प्रथ॒मः प॒थस्त॑ते॒ ततः॒ सूर्यो॑ व्रत॒पा वे॒न आज॑नि। आ गा आ॑जदु॒शना॑ का॒व्यः सचा॑ य॒मस्य॑ जा॒तम॒मृतं॑ यजामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञै: । अथ॑र्वा । प्र॒थ॒म: । प॒थ: । त॒ते॒ । तत॑: । सूर्य॑: । व्र॒त॒पा: । वे॒न: ।आ । अ॒ज॒नि॒ ॥ आ । गा: । आ॒ज॒त् । उ॒शना॑ । का॒व्य: ।सचा॑ । य॒मस्य॑ । जा॒तम् । अ॒मृत॑म् । य॒जा॒म॒हे॒ ॥२५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते ततः सूर्यो व्रतपा वेन आजनि। आ गा आजदुशना काव्यः सचा यमस्य जातममृतं यजामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञै: । अथर्वा । प्रथम: । पथ: । तते । तत: । सूर्य: । व्रतपा: । वेन: ।आ । अजनि ॥ आ । गा: । आजत् । उशना । काव्य: ।सचा । यमस्य । जातम् । अमृतम् । यजामहे ॥२५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 25; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (प्रथमः) सबसे पहिले वर्तमान (अथर्वा) निश्चल परमात्मा ने (यज्ञैः) संगति कर्मों [परमाणुओं के मेलों] से (पथः) मार्गों को (तते) फैलाया, (ततः) फिर (व्रतपाः) नियम पालनेवाला, (वेनः) पियारा (सूर्यः) सूर्यलोक (आ) सब ओर (अजनि) प्रकट हुआ। (उशना) पियारे, (काव्यः) बड़ाई योग्य उस [सूर्य] ने (गाः) पृथिवियों [चलते हुए लोकों] को (आ) सब ओर (आजत्) खींचा हैं, (यमस्य) उस नियमकर्ता परमेश्वर के (सचा) मेल से (जातम्) उत्पन्न हुए (अमृतम्) अमरण [मोक्षसुख वा जीवनसामर्थ्य] को (यजामहे) हम पाते हैं ॥॥

    भावार्थ - जिस परमात्मा ने आकाश, सूर्य, पृथिवी आदि लोक बनाकर हमें जीवन दिया है, उस बड़े जगदीश्वर की उपासना से विद्वान् लोग आत्मिक बल बढ़ाकर मोक्षसुख भोगें ॥॥

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