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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 41

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४१

    इ॒च्छनश्व॑स्य॒ यच्छिरः॒ पर्व॑ते॒ष्वप॑श्रितम्। तद्वि॑दच्छर्य॒णाव॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒च्छन् । अश्व॑स्य । यत् । शिर॑: । पर्व॑तेषु । अप॑ऽश्रितम् ॥ तत् । वि॒द॒त् । श॒र्य॒णाऽव॑ति ॥४१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इच्छनश्वस्य यच्छिरः पर्वतेष्वपश्रितम्। तद्विदच्छर्यणावति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इच्छन् । अश्वस्य । यत् । शिर: । पर्वतेषु । अपऽश्रितम् ॥ तत् । विदत् । शर्यणाऽवति ॥४१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 41; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (अश्वस्य) काम में व्यापनेवाले बलवान् पुरुष का (यत्) जो (शिरः) शिर [मस्तक वा विचारसामर्थ्य] (पर्वतेषु) मेघों [के समान उपकारी मनुष्यों] में (अपश्रितम्) आश्रित है, (तत्) उस [विचारसामर्थ्य] को (इच्छन्) चाहते हुए पुरुष ने (शर्यणावति) तीर चलाने के स्थान संग्राम में (विदत्) पाया है ॥२॥

    भावार्थ - जो पुरुष विद्वानों के समान अपना विचारसामर्थ्य बढ़ाना चाहे, वह परिश्रम के साथ ऐसा प्रयत्न करे, जैसे शूर सेनापति सङ्ग्राम में प्रयत्न करता है ॥२॥

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