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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 42

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 42/ मन्त्र 2
    सूक्त - कुरुसुतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४२

    अनु॑ त्वा॒ रोद॑सी उ॒भे क्रक्ष॑माणमकृपेताम्। इन्द्र॒ यद्द॑स्यु॒हाभ॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । त्वा॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । क्रक्ष॑माणम् । अ॒कृ॒पे॒ता॒म् ॥ इन्द्र॑ । इन्द्र॑ । यत् । द॒स्यु॒ऽहा । अभ॑व: ॥४२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु त्वा रोदसी उभे क्रक्षमाणमकृपेताम्। इन्द्र यद्दस्युहाभवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । त्वा । रोदसी इति । उभे इति । क्रक्षमाणम् । अकृपेताम् ॥ इन्द्र । इन्द्र । यत् । दस्युऽहा । अभव: ॥४२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 42; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (क्रक्षमाणम्) आकर्षण करते हुए [वश में करते हुए] (त्वा अनु) तेरे पीछे (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और भूमि (अकृपेताम्) समर्थ हुए हैं, (यत्) जबकि तू (दस्युहा) शत्रुओं [विघ्नों] का नाश करनेवाला (अभवः) हुआ ॥२॥

    भावार्थ - परमेश्वर ने अन्धकार आदि विघ्नों को हटाकर वायु, जल, अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न करके सब लोकों को धारण किया है, वैसे ही मनुष्य अविद्या मिटाकर परस्पर रक्षा करें ॥२॥

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