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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
अ॒यमु॑ ते॒ सम॑तसि क॒पोत॑ इव गर्भ॒धिम्। वच॒स्तच्चि॑न्न ओहसे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ सम् । अ॒त॒सि॒ । क॒पोत॑:ऽइव । ग॒र्भ॒ऽधिम् ॥ वच॑: । तत् । चि॒त् । न॒: । ओ॒ह॒से॒ ॥४५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमु ते समतसि कपोत इव गर्भधिम्। वचस्तच्चिन्न ओहसे ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । ऊं इति । ते सम् । अतसि । कपोत:ऽइव । गर्भऽधिम् ॥ वच: । तत् । चित् । न: । ओहसे ॥४५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
विषय - सभापति के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
[हे सेनापति !] (अयम्) यह [प्रजाजन] (ते उ) तेरा ही है, तू [उस प्रजा जन से] (सम् अतसि) सदा मिलता रहता है, (इव) जैसे (कपोतः) कबूतर (गर्भधिम्) गर्भ रखनेवाली कबूतरी से [पालने को मिलता है], (तत्) इसलिये तू (चित्) ही (नः) हमारे (वचः) वचन को (ओहसे) सब प्रकार विचारता है ॥१॥
भावार्थ - जब कबूतरी अण्डे सेवती और बच्चे देती है, कबूतर बड़े प्रेम से उसको चारा लाकर खिलाता है, इसी प्रकार राजा सुनीति से प्रजा का पालन करे और उनकी पुकार सुने ॥१॥
टिप्पणी -
यह तृच ऋग्वेद में है-१।३०।४-६; सामवेद-उ० ७।३। तृच १, तथा मन्त्र १-साम० पू० २।९।९ ॥ १−(अयम्) प्रजाजनः (उ) एव (ते) तव (सम्) (अतसि) सततं संगच्छसे (कपोतः) पारावतः (इव) यथा (गर्भधिम्) गर्भ+दधातेः-कि प्रत्ययः। गर्भधारिणीं कपोतीम् (वचः) वचनम् (तत्) तस्मात् कारणात् (चित्) एव (नः) अस्माकम् (ओहसे) आ+ऊह वितर्के। समन्ताद् विचारयसि ॥