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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 50

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
    सूक्त - मेधातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५०

    कन्नव्यो॑ अत॒सीनां॑ तु॒रो गृ॑णीत॒ मर्त्यः॑। न॒ही न्व॑स्य महि॒मान॑मिन्द्रि॒यं स्वर्गृ॒णन्त॑ आन॒शुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कत् । नव्य॑: । अ॒त॒सीना॑म् । तु॒र: । गृ॒णी॒त॒ । मर्त्य॑: ॥ न॒हि । नु । अ॒स्य॒ । म॒हि॒ऽमान॑म् । इ॒न्द्रि॒यम् । स्व॑: । गृ॒णन्त॑: । आ॒न॒शु: ॥५०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कन्नव्यो अतसीनां तुरो गृणीत मर्त्यः। नही न्वस्य महिमानमिन्द्रियं स्वर्गृणन्त आनशुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कत् । नव्य: । अतसीनाम् । तुर: । गृणीत । मर्त्य: ॥ नहि । नु । अस्य । महिऽमानम् । इन्द्रियम् । स्व: । गृणन्त: । आनशु: ॥५०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 50; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अतसीनाम्) सदा चलती हुई [सृष्टियों] के (तुरः) वेग देनेवाले [परमात्मा] के (नव्यः) अधिक नवीन कर्म को (मर्त्यः) मनुष्य (कत्) कैसे (गृणीत) बता सके ? (नु) क्या (अस्य) उसकी (महिमानम्) महिमा और (इन्द्रियम्) इन्द्रपन [परम ऐश्वर्य] को (गृणन्तः) वर्णन करते हुए पुरुषों ने (स्वः) आनन्द (नहि) नहीं (आनशुः) पाया है ॥१॥

    भावार्थ - यद्यपि अल्पज्ञ मनुष्य सब सृष्टियों के चलानेवाले जगदीश्वर के अनन्त गुणों को नहीं जान सकता, तो भी वह उसकी महिमा और परम ऐश्वर्य को विचारते-विचारते और पुरुषार्थ करते-करते अवश्य आनन्द पाता है ॥१॥

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