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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 60

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
    सूक्त - सुतकक्षः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६०

    ए॒वा ह्यसि॑ वीर॒युरे॒वा शूर॑ उ॒त स्थि॒रः। ए॒वा ते॒ राध्यं॒ मनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । हि । असि॑ । वी॒र॒ऽयु: । ए॒व । शूर॑: । उ॒त । स्थि॒र: ॥ ए॒व । ते॒ । राध्य॑म् । मन॑: ॥६०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा ह्यसि वीरयुरेवा शूर उत स्थिरः। एवा ते राध्यं मनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । हि । असि । वीरऽयु: । एव । शूर: । उत । स्थिर: ॥ एव । ते । राध्यम् । मन: ॥६०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 60; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे पुरुष !] तू (एव) निश्चय करके (हि) ही (वीरयुः) वीरों का चाहनेवाला, (एव) निश्चय करके (शूरः) शूर (उत) और (स्थिरः) दृढ़ (असि) है, (एव) निश्चय करके (ते) तेरा (मनः) मन [विचारसामर्थ्य] (राध्यम्) बड़ाई योग्य है ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य धार्मिक सत्य सङ्कल्पों की पूर्ति के लिये सदा दृढ़ प्रयत्न करे ॥१॥

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