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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    सूक्त - सुकक्षः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७

    नव॒ यो न॑व॒तिं पुरो॑ बि॒भेद॑ बा॒ह्वोजसा। अहिं॑ च वृत्र॒हाव॑धीत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नव॑ । य: । न॒व॒तिम् । पुर॑: । बि॒भेद॑ । बा॒हुऽओ॑जसा । अह‍ि॑म् । च॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒व॒धी॒त् ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नव यो नवतिं पुरो बिभेद बाह्वोजसा। अहिं च वृत्रहावधीत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नव । य: । नवतिम् । पुर: । बिभेद । बाहुऽओजसा । अह‍िम् । च । वृत्रऽहा । अवधीत् ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 7; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (यः) जिस (वृत्रहा) शत्रुनाशक [सेनापति] ने (बाह्वोजसा) अपने बाहुबल से (नव नवतिम्) नौ नब्बे [९+९०=९९ अथवा ९*९०=८१०, अर्थात् असंख्य] (पुरः) दुर्गों को (बिभेद) तोड़ा है (च) और (अहिम्) सर्प [सर्पसमान हिंसक शत्रु] को (अवधीत्) मारा ॥२॥

    भावार्थ - जो शूर सेनापति अनेक अधर्मी दुष्टों को नाश करे, वही प्रजा को धनवान् करता है ॥२, ३॥

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