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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - पन्थानः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - वाणिज्य

    ये पन्था॑नो ब॒हवो॑ देव॒याना॑ अन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वी सं॒चर॑न्ति। ते मा॑ जुषन्तां॒ पय॑सा घृ॒तेन॒ यथा॑ क्री॒त्वा धन॑मा॒हरा॑णि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । पन्था॑न: । ब॒हव॑:। दे॒व॒ऽयाना॑: । अ॒न्त॒रा । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । स॒म्ऽचर॑न्ति । ते । मा॒ । जु॒ष॒न्ता॒म् । पय॑सा । घृ॒तेन॑ । यथा॑ । क्री॒त्वा । धन॑म् । आ॒ऽहरा॑णि ॥१५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये पन्थानो बहवो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी संचरन्ति। ते मा जुषन्तां पयसा घृतेन यथा क्रीत्वा धनमाहराणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । पन्थान: । बहव:। देवऽयाना: । अन्तरा । द्यावापृथिवी इति । सम्ऽचरन्ति । ते । मा । जुषन्ताम् । पयसा । घृतेन । यथा । क्रीत्वा । धनम् । आऽहराणि ॥१५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (ये) जो (देवयानाः) विद्वान् व्यापारियों के यानों रथादिकों के योग्य (बहवः) बहुत से (पन्थानः) मार्ग (द्यावापृथिव्यौ=०−व्यौ) सूर्य और पृथिवी के (अन्तरा) बीच (संचरन्ति) चलते रहते हैं, (ते) वे [मार्ग] (पयसा) दूध से और (घृतेन) घी से (मा) मुझको (जुषन्ताम्) तृप्त करें, (यथा) जिससे (क्रीत्वा) मोल लेकर [व्यापार करके] (धनम्) धन (आहराणि) मैं लाऊँ ॥२॥

    भावार्थ - व्यापारी लोग विमान, रथ, नौकादि द्वारा आकाश, भूमि, समुद्र, पर्वत, आदि से देश-देशान्तरों में जाकर अनेक प्रकार व्यापार करके मूलधन बढ़ावें और धनाढ्य होकर घर आवें ॥२॥

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