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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 32

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मास्कन्दः देवता - मन्युः छन्दः - जगती सूक्तम् - सेनासंयोजन सूक्त

    यस्ते॑ म॒न्योऽवि॑धद्वज्र सायक॒ सह॒ ओजः॑ पुष्यति॒ विश्व॑मानु॒षक्। सा॒ह्याम॒ दास॒मार्यं॒ त्वया॑ यु॒जा व॒यं सह॑स्कृतेन॒ सह॑सा॒ सह॑स्वता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ते॒ । म॒न्यो॒ इति॑ । अवि॑धत् । व॒ज्र॒ । सा॒य॒क॒ । सह॑: । ओज॑: । पु॒ष्य॒ति॒ । विश्व॑म् । आ॒नु॒षक् । स॒ह्याम्॑ । दास॑म् । आर्य॑म् । त्वया॑ । यु॒जा । व॒यम् । सह॑:ऽकृतेन । सह॑सा । सह॑स्वता ॥३२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते मन्योऽविधद्वज्र सायक सह ओजः पुष्यति विश्वमानुषक्। साह्याम दासमार्यं त्वया युजा वयं सहस्कृतेन सहसा सहस्वता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । ते । मन्यो इति । अविधत् । वज्र । सायक । सह: । ओज: । पुष्यति । विश्वम् । आनुषक् । सह्याम् । दासम् । आर्यम् । त्वया । युजा । वयम् । सह:ऽकृतेन । सहसा । सहस्वता ॥३२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (वज्र) हे वज्ररूप (सायक) हे शत्रुनाशक (मन्यो) दीप्तिमान् क्रोध ! (यः) जिस पुरुष ने (ते) तेरी (अविधत्) सेवा की है, वह (विश्वम्) सब (सहः) शरीरबल और (ओजः) समाजबल (आनुषक्) लगातार (पुष्यति) पुष्ट करता है। (सहस्कृतेन) बल से उत्पन्न हुए, (सहस्वता) बलवान्, (त्वया युजा) तुझ सहायक के साथ (सहसा) बल से (वयम्) हम लोग (दासम्) दास, काम बिगाड़ देनेवाले मूर्ख और (आर्यम्) आर्य अर्थात् विद्वान् का (सह्याम) निर्णय करें ॥१॥

    भावार्थ - जो मनुष्य बुद्धिपूर्वक क्रोध का आराधन करते हैं, वे भीतरी और बाहिरी बल बढ़ा कर मूर्खों का निरादर और विद्वानों का आदर करके कीर्त्ति पाते हैं ॥१॥ यह सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद में है। म० १०। सू० ८३। वहाँ सूक्त के ऋषि मन्यु तापस और देवता मन्यु हैं ॥

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