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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - संपत्कर्म सूक्त

    न कामे॑न॒ पुन॑र्मघो भवामि॒ सं च॑क्षे॒ कं पृश्नि॑मे॒तामुपा॑जे। केन॒ नु त्वम॑थर्व॒न्काव्ये॑न॒ केन॑ जा॒तेना॑सि जा॒तवे॑दाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । कामे॑न । पुन॑:ऽमघ: । भ॒वा॒मि॒ । सम् । च॒क्षे॒ । कम् । पृश्नि॑म् । ए॒ताम् । उप॑ । अ॒जे॒ । केन॑ । नु । त्वम् । अ॒थ॒र्व॒न् । काव्ये॑न । केन॑ । जा॒तेन॑ । अ॒सि॒ । जा॒तऽवे॑दा: ॥११.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न कामेन पुनर्मघो भवामि सं चक्षे कं पृश्निमेतामुपाजे। केन नु त्वमथर्वन्काव्येन केन जातेनासि जातवेदाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । कामेन । पुन:ऽमघ: । भवामि । सम् । चक्षे । कम् । पृश्निम् । एताम् । उप । अजे । केन । नु । त्वम् । अथर्वन् । काव्येन । केन । जातेन । असि । जातऽवेदा: ॥११.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (कामेन) शुभ कामना से (न) अब (पुनर्मघः) अवश्य धन देनेवाला मैं (भवामि) होता हूँ, [क्योंकि] (एताम्) इस (पृश्निम्) वेदविद्या को (कम्) सुख से (सम्) ठीक-ठीक (चक्षे) देखता हूँ और (उप) आदर से (अजे) प्राप्त करता हूँ। (अथर्वन्) हे निश्चल स्वभाववाले पुरुष ! (त्वम्) तू (नु) निश्चय करके (केन) कामना योग्य (काव्येन) स्तुतियोग्य (जातेन) प्रसिद्ध (केन) सुखप्रद प्रजापति परमेश्वर के साथ (जातवेदाः) बहुत धन वा बुद्धिवाला (असि) है ॥२॥

    भावार्थ - योगी जन आदर से वेदविद्या प्राप्त करता, और उसके प्रचार से संसार को सुखी करके आप सुखी होता है ॥२॥

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