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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - सोमारुद्रौ छन्दः - त्रिपदा विराटड्गायत्री सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त

    न्वे॒तेना॑रात्सीरसौ॒ स्वाहा॑। ति॒ग्मायु॑धौ ति॒ग्महे॑ती सु॒षेवौ॒ सोमा॑रुद्रावि॒ह सु मृ॑डतं नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । ए॒तेन॑ । अ॒रा॒त्सी॒: । अ॒सौ॒ । स्वाहा॑ । ति॒ग्मऽआ॑युधौ । ति॒ग्महे॑ती॒ इति॑ ति॒ग्मऽहे॑ती । सु॒ऽशेवौ॑ । सोमा॑रुद्रौ । इ॒ह । सु । मृ॒ड॒त॒म् । न॒: ॥६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न्वेतेनारात्सीरसौ स्वाहा। तिग्मायुधौ तिग्महेती सुषेवौ सोमारुद्राविह सु मृडतं नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु । एतेन । अरात्सी: । असौ । स्वाहा । तिग्मऽआयुधौ । तिग्महेती इति तिग्मऽहेती । सुऽशेवौ । सोमारुद्रौ । इह । सु । मृडतम् । न: ॥६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [हे परमेश्वर !] (एतेन) अपनी व्याप्ति से (असौ) उस तूने (नु) शीघ्र [धर्मात्मा को] (अरात्सीः) समृद्ध किया है (स्वाहा) यह सुन्दर वाणी वा स्तुति है (तिग्मायुधौ) हे तेज शस्त्रोंवाले, (तिग्महेती) पैने वज्रोंवाले, (सुशेवौ) बड़े सुखवाले (सोमारुद्रौ) ऐश्वर्य के कारण और ज्ञानदाता, अथवा चन्द्रमा और प्राण के तुल्य, राजा और वैद्य जनो, तुम दोनों (इह) यहाँ पर (सु) अच्छे प्रकार (नः) हमें (मृडतम्) सुखी करो ॥५॥

    भावार्थ - परमेश्वर सदैव धर्मात्माओं पर दया करता है। इसी से राजा और वैद्य चन्द्रमा और प्राण के समान उपकार करके संसार में सुख बढ़ावें ॥५॥ (तिग्मायुधौ इत्यादि) ऋग्वेद में है−म० ६ सू० ७४ म० ४ ॥

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