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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 109

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 109/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पिप्पलीभैषज्य सूक्त

    असु॑रास्त्वा॒ न्यखनन्दे॒वास्त्वोद॑वप॒न्पुनः॑। वा॒तीकृ॑तस्य भेष॒जीमथो॑ क्षि॒प्तस्य॑ भेष॒जीम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असु॑रा: । त्वा॒ । नि । अ॒ख॒न॒न् । दे॒वा: । त्वा॒ । उत् । अ॒व॒प॒न् । पुन॑: । वा॒तीऽकृ॑तस्य । भे॒ष॒जीम् । अथो॒ इति॑ । क्षि॒प्तस्‍य॑ । भे॒ष॒जीम् ॥१०९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असुरास्त्वा न्यखनन्देवास्त्वोदवपन्पुनः। वातीकृतस्य भेषजीमथो क्षिप्तस्य भेषजीम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असुरा: । त्वा । नि । अखनन् । देवा: । त्वा । उत् । अवपन् । पुन: । वातीऽकृतस्य । भेषजीम् । अथो इति । क्षिप्तस्‍य । भेषजीम् ॥१०९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 109; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [हे पिप्पली] (असुराः) बुद्धिमान् पुरुषों ने (वातीकृतस्य) गठिया के रोगी की (भेषजीम्) ओषधी, (अथो) और (क्षिप्तस्य) उन्मत्त की (भेषजीम्) ओषधि (त्वा) तुझको (नि) निरन्तर (अखनन्) खोदा है और (देवाः) व्यवहारकुशल पुरुषों ने (त्वा) तुझको (पुनः) फिर (उत्) उत्तम रीति से (अवपन्) बोया है ॥३॥

    भावार्थ - जैसे सद्वैद्य परीक्षा करके पिप्पली आदि ओषधियों को खोदते और बाते और काम में लाते हैं, वैसे ही विद्वान् पुरुष विद्या का सुप्रयोग करते हैं ॥३॥

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