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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
    सूक्त - बभ्रुपिङ्गल देवता - बलासः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - बलासनाशन सूक्त

    निर्ब॒लासं॑ बला॒सिनः॑ क्षि॒णोमि॑ मुष्क॒रं य॑था। छि॒नद्म्य॑स्य॒ बन्ध॑नं॒ मूल॑मुर्वा॒र्वा इ॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि: । ब॒लास॑म् । ब॒ला॒सिन॑:। क्षि॒णोमि॑ । मु॒ष्क॒रम् । य॒था॒ । छि॒नद्मि॑ । अ॒स्य॒ । बन्ध॑नम् । मूल॑म् । उ॒र्वा॒र्वा:ऽइ॑व ॥१४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निर्बलासं बलासिनः क्षिणोमि मुष्करं यथा। छिनद्म्यस्य बन्धनं मूलमुर्वार्वा इव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि: । बलासम् । बलासिन:। क्षिणोमि । मुष्करम् । यथा । छिनद्मि । अस्य । बन्धनम् । मूलम् । उर्वार्वा:ऽइव ॥१४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 14; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (बलासिनः) क्षय रोगवाले से (बलासम्) बल घटानेवाले क्षयरोग को (निः क्षिणोमि) उखाड़ कर नाश करता हूँ (यथा) जैसे (मुष्करम्) कतरन को। (अस्य) इस रोग के (बन्धनम्) बन्धन को (छिनद्मि) काटे डालता हूँ, (इव) जैसे (उर्वार्वाः) ककड़ी की (मूलम्) जड़ को ॥२॥

    भावार्थ - जैसे सद्वैद्य रोग का कारण समझ कर शीघ्र चिकित्सा करता है, वैसे ही विद्वान् अपने दोषों को समझ कर हटावे ॥२॥

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