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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 81

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 81/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गर्भाधान सूक्त

    य॒न्तासि॒ यच्छ॑से॒ हस्ता॒वप॒ रक्षां॑सि सेधसि। प्र॒जां धनं॑ च गृह्णा॒नः प॑रिह॒स्तो अ॑भूद॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒न्ता । अ॒सि॒ । यच्छ॑से । हस्तौ॑ । अप॑ ।रक्षां॑सि । से॒ध॒सि॒ । प्र॒ऽजाम् । धन॑म् । च॒ । गृ॒ह्णा॒न: । प॒रि॒ऽह॒स्त: । अ॒भू॒त् । अ॒यम् ॥८१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्तासि यच्छसे हस्तावप रक्षांसि सेधसि। प्रजां धनं च गृह्णानः परिहस्तो अभूदयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यन्ता । असि । यच्छसे । हस्तौ । अप ।रक्षांसि । सेधसि । प्रऽजाम् । धनम् । च । गृह्णान: । परिऽहस्त: । अभूत् । अयम् ॥८१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 81; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे पुरुष !] तू (यन्ता) नियम में चलनेवाला (असि) है, तू (हस्तौ) अपने दोनों हाथों को [सहायता के लिये] (यच्छसे) देनेवाला है, तू (रक्षांसि) राक्षसों [विघ्नों] को (अप सेधसि) हटाता है। (प्रजाम्) प्रजा (च) और (धनम्) धन को (गृह्णानः) सहारा देते हुए (अयम्) यह आप (परिहस्तः) हाथ का सहारा देनेवाले (अभूत्) हुए हैं ॥१॥

    भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष ही सब दरिद्रता आदि विघ्नों को हटा कर प्रजा और धन की रक्षा करके गृहस्थ आश्रम चलाने में समर्थ होते हैं ॥१॥

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