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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 87

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 87/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - ध्रुवः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राज्ञः संवरण सूक्त

    इन्द्र॑ ए॒तम॑दीधरद् ध्रु॒वं ध्रु॒वेण॑ ह॒विषा॑। तस्मै॒ सोमो॒ अधि॑ ब्रवद॒यं च॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । ए॒तम् । अ॒दी॒ध॒र॒त्। ध्रु॒वम् । ध्रु॒वेण॑ । ह॒विषा॑ । तस्मै॑ । सोम॑: । अधि॑ । ब्र॒व॒त् । अ॒यम् । च॒ । ब्रह्म॑ण: । पति॑: ॥८७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र एतमदीधरद् ध्रुवं ध्रुवेण हविषा। तस्मै सोमो अधि ब्रवदयं च ब्रह्मणस्पतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । एतम् । अदीधरत्। ध्रुवम् । ध्रुवेण । हविषा । तस्मै । सोम: । अधि । ब्रवत् । अयम् । च । ब्रह्मण: । पति: ॥८७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 87; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (इन्द्रः) परमेश्वर ने (ध्रुवेण) दृढ़ (हविषा) देने लेने योग्य शुभकर्म के साथ (एतम्) इस राजा को (ध्रुवम्) दृढ़ (अदीधरत्) स्थापित किया है। (अयम्) वही (सोमः) सब का उत्पन्न करनेवाला (च) और (ब्रह्मणस्पतिः) ब्रह्माण्ड और वेद का पालक परमेश्वर (तस्मै) उस राजा को (अधि) अधिक-अधिक (ब्रवत्) उपदेश करे ॥३॥

    भावार्थ - राजा को योग्य है कि परमेश्वर में श्रद्धा करके प्रजापालन, विद्या आदि शुभकर्म करता हुआ सदा उन्नति करे ॥३॥

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