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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 109

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 109/ मन्त्र 4
    सूक्त - बादरायणिः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रभृत सूक्त

    आ॑दिन॒वं प्र॑ति॒दीव्ने॑ घृ॒तेना॒स्माँ अ॒भि क्ष॑र। वृ॒क्षमि॑वा॒शन्या॑ जहि॒ यो अ॒स्मान्प्र॑ति॒दीव्य॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒दि॒न॒वम् । प्र॒ति॒ऽदीव्ने॑ । घृ॒तेन॑ । अ॒स्मान् । अ॒भि । क्ष॒र॒ । वृ॒क्षम्ऽइ॑व । अ॒शन्या॑ । ज॒हि॒ । य: । अ॒स्मान् । प्र॒ति॒ऽदीव्य॑ति ॥११४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदिनवं प्रतिदीव्ने घृतेनास्माँ अभि क्षर। वृक्षमिवाशन्या जहि यो अस्मान्प्रतिदीव्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आदिनवम् । प्रतिऽदीव्ने । घृतेन । अस्मान् । अभि । क्षर । वृक्षम्ऽइव । अशन्या । जहि । य: । अस्मान् । प्रतिऽदीव्यति ॥११४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 109; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [हे परमात्मन् !] (प्रतिदीव्ने) प्रतिकूल व्यवहार करनेवाले के नाश करने को (घृतेन) प्रकाश के साथ (अस्मान् अभि) हमारे ऊपर (आदिनवम्) प्रथम नवीन वा स्तुतिवाले [बोध] को (क्षर) छिड़क। (यः) जो (अस्मान्) हमसे (प्रतिदीव्यति) प्रतिकूल व्यवहार करता है, [उसे] (जहि) मार डाल, (वृक्षम् इव) जैसे वृक्ष को (अशन्या) बिजुली से ॥४॥

    भावार्थ - मनुष्य वैदिक ज्ञान से अपने विरोधी शत्रु वा अज्ञान का सर्वथा नाश करें ॥४॥

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