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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 112

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 112/ मन्त्र 2
    सूक्त - वरुणः देवता - आपः, वरुणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पापनाशन सूक्त

    मु॒ञ्चन्तु॑ मा शप॒थ्या॒दथो॑ वरु॒ण्यादु॒त। अथो॑ य॒मस्य॒ पड्वी॑शा॒द्विश्व॑स्माद्देवकिल्बि॒षात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मु॒ञ्चन्तु॑ । मा॒ । श॒प॒थ्या᳡त् । अथो॒ इति॑ । व॒रु॒ण्या᳡त् । उ॒त । अथो॒ इति॑ । य॒मस्‍य॑ । पड्वी॑शात् । विश्व॑स्मात् । दे॒व॒ऽकि॒ल्बि॒षात् ॥११७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मुञ्चन्तु मा शपथ्यादथो वरुण्यादुत। अथो यमस्य पड्वीशाद्विश्वस्माद्देवकिल्बिषात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मुञ्चन्तु । मा । शपथ्यात् । अथो इति । वरुण्यात् । उत । अथो इति । यमस्‍य । पड्वीशात् । विश्वस्मात् । देवऽकिल्बिषात् ॥११७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 112; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    वे [व्यापनशील इन्द्रियाँ-म० १] (मा) मुझको (शपथ्यात्) शपथ सम्बन्धी (अथो) और (वरुण्यात्) श्रेष्ठों में हुए [अपराध] से (अथो) और (यमस्य) न्यायकारी राजा के (पड्वीशात्) बेड़ी डालने से (उत) और (विश्वस्मात्) सब (देवकिल्बिषात्) परमेश्वर के प्रति अपराध से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें ॥२॥

    भावार्थ - मनुष्य प्रमाद छोड़कर इन्द्रियों को जीतकर सब प्रकार के दोषों से बचें ॥२॥ यह मन्त्र आ चुका है। अ० ६।९६।२ ॥

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