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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 116

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 116/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वाङ्गिराः देवता - चन्द्रमाः छन्दः - एकावसाना द्विपदार्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - ज्वरनाशन सूक्त

    यो अ॑न्ये॒द्युरु॑भय॒द्युर॒भ्येती॒मं म॒ण्डूक॑म॒भ्येत्वव्र॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒न्ये॒द्यु॒: । उ॒भ॒य॒ऽद्यु: । अ॒भि॒ऽएति॑ । इ॒मम । म॒ण्डूक॑म् । अ॒भि । ए॒तु॒ । अ॒व्र॒त: ॥१२१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अन्येद्युरुभयद्युरभ्येतीमं मण्डूकमभ्येत्वव्रतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अन्येद्यु: । उभयऽद्यु: । अभिऽएति । इमम । मण्डूकम् । अभि । एतु । अव्रत: ॥१२१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 116; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (यः) जो (अन्येद्युः) एकान्तरा और (उभयद्युः) दो अन्तरा [ज्वरसमान] (अभ्येति) चढ़ता है, (अव्रतः) नियमहीन वह [रोग] (इमम्) इस (मण्डूकम्) मेंढक [समान टर्रानेवाले आत्मश्लाघी पुरुष] को (अभि एतु) चढ़े [ऐसे ज्वरसमान शत्रु पर वज्र होवे-म० १] ॥२॥

    भावार्थ - जैसे ज्वर आदि रोग कुनियमियों को सताता है, वैसे धर्मात्माओं के दुःखदायी शत्रु लोग दण्डनीय हैं ॥२॥

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