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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 65

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गवीरुत् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दुरितनाशन सूक्त

    प्र॑ती॒चीन॑फलो॒ हि त्वमपा॑मार्ग रु॒रोहि॑थ। सर्वा॒न्मच्छ॒पथाँ॒ अधि॒ वरी॑यो यावया इ॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ती॒चीन॑ऽफल: । हि । त्वम् । अपा॑मार्ग । रु॒रोहि॑थ । सर्वा॑न् । मत् । श॒पथा॑न् । अधि॑ । वरी॑य: । य॒व॒या॒: । इ॒त: ॥६७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतीचीनफलो हि त्वमपामार्ग रुरोहिथ। सर्वान्मच्छपथाँ अधि वरीयो यावया इतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतीचीनऽफल: । हि । त्वम् । अपामार्ग । रुरोहिथ । सर्वान् । मत् । शपथान् । अधि । वरीय: । यवया: । इत: ॥६७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 65; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अपामार्ग) हे सर्वसंशोधक वैद्य ! [वा अपामार्ग औषध !] (त्वम्) तू (हि) निश्चय करके (प्रतीचीनफलः) प्रतिकूलगतिवाले रोगों का नाश करनेवाला (रुरोहिथ) उत्पन्न हुआ है। (इतः मत्) इस मुझसे (सर्वान्) सब (शपथान्) शापों [दोषों] को (अधि) अधिकारपूर्वक (वरीयः) अतिदूर (यवयाः) तू हटा देवे ॥१॥

    भावार्थ - जैसे वैद्य अपामार्ग आदि औषध से रोगों को दूर करता हैं, वैसे ही विद्वान् अपने आत्मिक और शारीरिक दोषों को हटावे ॥१॥ अपामार्ग औषध विशेष है, जिससे कफ़ बवासीर, खुजली, उदररोग और विषरोग का नाश होता है−देखो अ० ४।१७।६ ॥

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