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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 81

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 81/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - सावित्री, सूर्यः, चन्द्रमाः छन्दः - सम्राडास्तारपङ्क्ति सूक्तम् - सूर्य-चन्द्र सूक्त

    यो॑३ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मस्तस्य॒ त्वं प्रा॒णेना प्या॑यस्व। आ व॒यं प्या॑सिषीमहि॒ गोभि॒रश्वैः॑ प्र॒जया॑ प॒शुभि॑र्गृ॒हैर्धने॑न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । तस्य॑ । त्वम् । प्रा॒णेन॑ । आ । प्या॒य॒स्व॒ । आ । व॒यम् । प्या॒शि॒षी॒म॒हि॒ । गोभि॑: । अश्वै॑: । प्र॒ऽजया॑ । प॒शुऽभि॑: । गृ॒है: । धने॑न ॥८६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो३ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तस्य त्वं प्राणेना प्यायस्व। आ वयं प्यासिषीमहि गोभिरश्वैः प्रजया पशुभिर्गृहैर्धनेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । तस्य । त्वम् । प्राणेन । आ । प्यायस्व । आ । वयम् । प्याशिषीमहि । गोभि: । अश्वै: । प्रऽजया । पशुऽभि: । गृहै: । धनेन ॥८६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 81; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (यः) जो मनुष्य (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) द्वेष करता है, और (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) विरोध करते हैं, (त्वम्) तू [हे चन्द्र !] (तस्य) उसको (प्राणेन) प्राण से (आप्यायस्व) वियुक्त कर। (वयम्) हम लोग (गोभिः) गौओं से, (अश्वैः) घोड़ों से, (पशुभिः) [हाथी भैंस भेड़ आदि] अन्य पशुओं से, (प्रजया) सन्तान भृत्य आदि से, (गृहैः) घरों से, और (धनेन) धन से (आ) सब प्रकार (प्यासिषीमहि) बढ़ें ॥५॥

    भावार्थ - चन्द्रमा आदि के उत्तम गुण कुव्यवहार से दुःखदायक और सुव्यवहार से सुखदायक होते हैं ॥५॥ (प्यासिषीमहि) के स्थान पर पं० सेवकलाल के पुस्तक में (प्यायिषीमहि) पाठ है ॥

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