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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 35
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    नमो॑ बि॒ल्मिने॑ च॒ कव॒चिने॑ च॒ नमो॑ व॒र्मिणे॑ च वरू॒थिने॑ च॒ नमः॑ श्रु॒ताय॑ च श्रुतसे॒नाय॑ च॒ नमो॑ दुन्दु॒भ्याय चाहन॒न्याय च॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः॑। बि॒ल्मिने॑। च॒। क॒व॒चिने॑। च॒। नमः॑। व॒र्मिणे॑। च॒। व॒रू॒थिने॑। च॒। नमः॑। श्रु॒ताय॑। च॒। श्रु॒त॒से॒नायेति॑ श्रुतऽसे॒नाय॑। च॒। नमः॑। दु॒न्दु॒भ्या᳖य। च॒। आ॒ह॒न॒न्या᳖येत्याऽहन॒न्या᳖य। च॒ ॥३५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमो बिल्मिने च कवचिने च नमो वर्मिणे च वरूथिने च नमः श्रुताय च श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुभ्याय चाहनन्याय च नमो धृष्णवे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नमः। बिल्मिने। च। कवचिने। च। नमः। वर्मिणे। च। वरूथिने। च। नमः। श्रुताय। च। श्रुतसेनायेति श्रुतऽसेनाय। च। नमः। दुन्दुभ्याय। च। आहनन्यायेत्याऽहनन्याय। च॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 35
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    भावार्थ - राजा व प्रजा यांनी योद्ध्यांचे सर्व प्रकारे रक्षण करावे. सर्वांना सुखकारक घरे, खाण्यापिण्याचे पदार्थ, चांगल्या माणसांची संगती व वाद्यवृंद इत्यादीनी देऊन आपले अभीष्ट कार्य सिद्ध करावे.

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