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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 20
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - पृथिवी देवता छन्दः - स्वराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    वह॑ व॒पां जा॑तवेदः पि॒तृभ्यो॒ यत्रै॑ना॒न् वेत्थ॒ निहि॑तान् परा॒के।मेद॑सः कु॒ल्याऽ उप॒ तान्त्स्र॑वन्तु स॒त्याऽ ए॑षामा॒शिषः॒ सं न॑मन्ता॒ स्वाहा॑॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वह॑। व॒पाम्। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑। यत्र॑। ए॒ना॒न्। वेत्थ॑। निहि॑ता॒निति॒ निऽहि॑तान्। प॒रा॒के ॥ मेद॑सः। कु॒ल्याः। उप॑। तान्। स्र॒व॒न्तु॒। स॒त्याः। ए॒षा॒म्। आ॒शिष॒ इत्या॒ऽऽशिषः॑। सम्। न॒म॒न्ता॒म्। स्वाहा॑ ॥२० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वह वपाञ्जातवेदः पितृभ्यो यत्रैनान्वेत्थ निहितान्पराके । मेदसः कुल्याऽउप तान्त्स्रवन्तु सत्याऽएषामाशिषः सन्नमन्ताँ स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वह। वपाम्। जातवेद इति जातऽवेदः। पितृभ्य इति पितृऽभ्यः। यत्र। एनान्। वेत्थ। निहितानिति निऽहितान्। पराके॥ मेदसः। कुल्याः। उप। तान्। स्रवन्तु। सत्याः। एषाम्। आशिष इत्याऽऽशिषः। सम्। नमन्ताम्। स्वाहा॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 20
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    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे (विद्वान) लोक दूर राहणाऱ्या पितरांना व विद्वानांना आमंत्रित करून त्यांचा सत्कार करतात व ज्याप्रमाणे बागबगीचातील वृक्ष, जल व वायूमुळे वाढतात तशा त्यांच्या (विद्वानांच्या) इच्छा फलद्रूप होतात.

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