ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 100/ मन्त्र 2
दधा॑मि ते॒ मधु॑नो भ॒क्षमग्रे॑ हि॒तस्ते॑ भा॒गः सु॒तो अ॑स्तु॒ सोम॑: । अस॑श्च॒ त्वं द॑क्षिण॒तः सखा॒ मेऽधा॑ वृ॒त्राणि॑ जङ्घनाव॒ भूरि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदधा॑मि । ते॒ । मधु॑नः । भ॒क्षम् । अग्रे॑ । हि॒तः । ते॒ । भा॒गः । सु॒तः । अ॒स्तु॒ । सोमः॑ । असः॑ । च॒ । त्वम् । द॒क्षि॒ण॒तः । सखा॑ । मे॒ । अध॑ । वृ॒त्राणि॑ । ज॒ङ्घ॒ना॒व॒ । भूरि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दधामि ते मधुनो भक्षमग्रे हितस्ते भागः सुतो अस्तु सोम: । असश्च त्वं दक्षिणतः सखा मेऽधा वृत्राणि जङ्घनाव भूरि ॥
स्वर रहित पद पाठदधामि । ते । मधुनः । भक्षम् । अग्रे । हितः । ते । भागः । सुतः । अस्तु । सोमः । असः । च । त्वम् । दक्षिणतः । सखा । मे । अध । वृत्राणि । जङ्घनाव । भूरि ॥ ८.१००.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 100; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
पदार्थ -
हे प्रभु! (ते) आपके द्वारा प्रदत्त (मधुनः) हर्षदायक ["मदी हर्षे] भोगों में से (भक्षम्) भोग्य अंश को (दधामि) धारता हूँ। पुनश्च (सुतः) उसका साररूप से गृहीत (सोमः) सुखदायी (भागः) अंश भी (ते अग्रे) आपके समक्ष रख देता हूँ। (च) और (त्वम्) आप (मे) मेरे (दक्षिणतः) दायीं ओर से (सखा) सखा (असः) हो जाते हैं। (अधा) इसके उपरान्त हम दोनों (भूरि) बहु संख्या में (वृत्राणि) विघ्न-राक्षसों को (जङ्घनाव) बारम्बार मारते हैं॥२॥
भावार्थ - भगवान् ने अपनी सृष्टि में अनेक प्रकार के भोग प्रदान किये हैं। जीव का कर्त्तव्य है कि उनका सार अर्थात् बोध प्राप्त कर उसे ही समर्पित करने की भावना से उसे ग्रहण करे। इस भाँति वह प्रभु का शक्तिशाली सखा--दायाँ हाथ--बनकर प्रभु के सहयोग से अपने जीवनपथ में आने वाले विघ्नों को दूर करने लग जाता है॥२॥
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