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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 100/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नेमो भार्गवः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दधा॑मि ते॒ मधु॑नो भ॒क्षमग्रे॑ हि॒तस्ते॑ भा॒गः सु॒तो अ॑स्तु॒ सोम॑: । अस॑श्च॒ त्वं द॑क्षिण॒तः सखा॒ मेऽधा॑ वृ॒त्राणि॑ जङ्घनाव॒ भूरि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दधा॑मि । ते॒ । मधु॑नः । भ॒क्षम् । अग्रे॑ । हि॒तः । ते॒ । भा॒गः । सु॒तः । अ॒स्तु॒ । सोमः॑ । असः॑ । च॒ । त्वम् । द॒क्षि॒ण॒तः । सखा॑ । मे॒ । अध॑ । वृ॒त्राणि॑ । ज॒ङ्घ॒ना॒व॒ । भूरि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधामि ते मधुनो भक्षमग्रे हितस्ते भागः सुतो अस्तु सोम: । असश्च त्वं दक्षिणतः सखा मेऽधा वृत्राणि जङ्घनाव भूरि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दधामि । ते । मधुनः । भक्षम् । अग्रे । हितः । ते । भागः । सुतः । अस्तु । सोमः । असः । च । त्वम् । दक्षिणतः । सखा । मे । अध । वृत्राणि । जङ्घनाव । भूरि ॥ ८.१००.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 100; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I bear my portion of the honey sweets of life primarily for you in gratitude, out of which the soma essence distilled from experience would be offered in homage. May you, I pray, be kind and friendly to me on the right and then together we shall eliminate evil and darkness from life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराने आपल्या सृष्टीत नाना प्रकारचे भोग प्रदान केलेले आहेत. जीवाचे हे कर्तव्य आहे, की त्यांचे सार-बोध प्राप्त करून प्रभूलाच समर्पित करण्याच्या भावनेने त्याचे ग्रहण करावे. या प्रकारे तो परमेश्वराचा शक्तिशाली मित्र बनून, अनुकूल सहायक बनून प्रभूच्या सहयोगाने आपल्या जीवनपथात येणाऱ्या विघ्नांना दूर करतो. ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे प्रभु! (ते) आपके द्वारा प्रदत्त (मधुनः) हर्षदायक ["मदी हर्षे] भोगों में से (भक्षम्) भोग्य अंश को (दधामि) धारता हूँ। पुनश्च (सुतः) उसका साररूप से गृहीत (सोमः) सुखदायी (भागः) अंश भी (ते अग्रे) आपके समक्ष रख देता हूँ। (च) और (त्वम्) आप (मे) मेरे (दक्षिणतः) दायीं ओर से (सखा) सखा (असः) हो जाते हैं। (अधा) इसके उपरान्त हम दोनों (भूरि) बहु संख्या में (वृत्राणि) विघ्न-राक्षसों को (जङ्घनाव) बारम्बार मारते हैं॥२॥

    भावार्थ

    भगवान् ने अपनी सृष्टि में अनेक प्रकार के भोग प्रदान किये हैं। जीव का कर्त्तव्य है कि उनका सार अर्थात् बोध प्राप्त कर उसे ही समर्पित करने की भावना से उसे ग्रहण करे। इस भाँति वह प्रभु का शक्तिशाली सखा--दायाँ हाथ--बनकर प्रभु के सहयोग से अपने जीवनपथ में आने वाले विघ्नों को दूर करने लग जाता है॥२॥

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    विषय

    जीवों के कर्मफल-भोगार्थ परमेश्वर की शरण प्राप्ति।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! ( ते ) तेरे दिये ( मधुनः भक्षम् ) मधुर अन्न के भोग्य फल को मैं ( अग्रे दधामि ) सदा अपने आगे लक्ष्य रूप से रखता हूं। और ( ते भागः ) तेरा भाग ( सुतः सोमः ते हितः अस्तु ) यह उत्पादित ऐश्वर्य सब तेरा ही दिया, तेरे ही अर्पण हो। और तू ( च मे) यदि मेरा ( दक्षिणतः सखा असः ) दायें ओर, सबसे बड़ा, प्रबल सखा, हो ( अथ ) तो तू और मैं दोनों मिलकर ( भूरि वृत्राणि ) बहुत से विघ्नों को ( जंघनाव ) विनाश करें।

    टिप्पणी

    'च' अत्र चण् इति णितः प्रयोगश्चेदर्थे वर्त्तते। ‘निपातैर्यद्यदिहन्तकुविञ्चेञ्चेणकञ्चिदयत्रयुक्तम्’ इति तिङो निधाताभावः॥ ईश्वर ही सबसे बड़ा सहायक है, उसके विना विध्नों का नाश असम्भव है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नेमो भार्गवः। ४, ५ इन्द्र ऋषिः॥ देवताः—१—९, १२ इन्द्रः। १०, ११ वाक्॥ छन्दः—१, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५, १२ त्रिष्टुप्। १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ निचृज्जगती। ७, ८ अनुष्टुप्। ९ निचृदनुष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'दक्षियातः सखा' [पूर्ण विश्वसनीय मित्र प्रभु]

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! (ते) = आपके (मधुनः) = इस जीवन को मधुर बनानेवाले सोम के (भक्षम्) = भोजन को, शरीर के अन्दर धारण को (अग्रे दधामि) = सब से पहले स्थापित करता हूँ। मैं सोमरक्षण को अपना मूल कर्त्तव्य बनाता हूँ। (सुतः सोमः) = शरीर में उत्पन्न सोम (ते) = आपकी प्राप्ति के लिये (हितः भागः अस्तु) = शरीर में सुरक्षित भजनीय वस्तु बने। सोमरक्षण के द्वारा मैं आपको प्राप्त करनेवाला बनूँ। [२] (च) = और हे प्रभो ! इस सोमरक्षण के होने पर (त्वम्) = आप (मे) = मेरे (दक्षिणतः सखा) = दाहिने हाथ के रूप में मित्र पूर्ण विश्वसनीय मित्र (असः) = हों। आपको मित्र रूप में पाकर (अधा) = अब वृत्राणि वृत्रों को, वासनाओं को (भूरि जङ्घनाव) = खूब ही विनष्ट करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सोमरक्षण को प्राथमिकता दें। इसके रक्षण को ही प्रभु प्राप्ति का साधन जानें। आप मेरे विश्वसनीय मित्र हों। हम दोनों मिलकर वासना रूप शत्रुओं का खूब ही विनाश करें।

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