Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 100 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 100/ मन्त्र 7
    ऋषिः - नेमो भार्गवः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    प्र नू॒नं धा॑वता॒ पृथ॒ङ्नेह यो वो॒ अवा॑वरीत् । नि षीं॑ वृ॒त्रस्य॒ मर्म॑णि॒ वज्र॒मिन्द्रो॑ अपीपतत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । नू॒नम् । धा॒व॒त॒ । पृथ॑क् । न । इ॒ह । यः । वः॒ । अवा॑वरीत् । नि । सी॒म् । वृ॒त्रस्य॑ । मर्म॑णि । वज्र॑म् । इन्द्रः॑ । अ॒पी॒प॒त॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र नूनं धावता पृथङ्नेह यो वो अवावरीत् । नि षीं वृत्रस्य मर्मणि वज्रमिन्द्रो अपीपतत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । नूनम् । धावत । पृथक् । न । इह । यः । वः । अवावरीत् । नि । सीम् । वृत्रस्य । मर्मणि । वज्रम् । इन्द्रः । अपीपतत् ॥ ८.१००.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 100; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O friends of divinity, with determined will and decision, move forward and run fast, each in your own style, there is none to stop you. Indra, lord omnipotent, strikes the thunderbolt at the core of darkness and destroys the obstructions.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो आपल्याशी मैत्री करतो, साह्य करतो त्याचीच संगत धरावी. असा मित्र परमेश्वरच आहे. तो विघ्नकारी शत्रूंवर घातक वार करून नष्ट करतो. ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे उपासको! (इह) यहाँ तुम्हारे जीवन-पथ पर (यः) जो (वः) तुम्हें (न) नहीं (अव अवरीत्) तुम्हारा मित्र बनकर नहीं रहता, (नूनम्) निश्चय ही उससे तुम (पृथङ्) अलग होकर (प्रधावत) अपने पथ पर आगे बढ़ते चलो। (इन्द्रः) परमात्मा तो (वृत्रस्य) विघ्नमात्र के या विघ्नकारी शक्तियों के (मर्मणि) मर्मस्थल पर (सीम्) चतुर्दिक् से (वज्रम्) अपने बल रूप वज्र को (नि, अपीपतत्) बार-बार गिराता है अर्थात् बल से विघ्नों को परास्त करता है॥७॥

    भावार्थ

    जो स्व जीवन में मैत्रीपूर्वक सहायक हो, उसी की संगति अपेक्षित है। ऐसा मित्र प्रभु ही है! वही लोगों के शत्रुभूत विघ्नों को दूर करता है। ७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    जीवों को प्रभु ने स्वतन्त्र क्यों किया।

    भावार्थ

    हे विद्वान् उपासक जीवो ! ( नूनं ) तुम अवश्य निश्चयपूर्वक बहुत शीघ्र ( प्र पृथक् धावत ) उत्तम मार्ग पर पृथक्, स्वतन्त्र होकर चलो और अपने आप को खूब स्वच्छ करो। ( यः ) जो परमेश्वर ( इत ) इस जगत् में ( वः ) आप लोगों को ( न अवावरीत ) नहीं रोकता वह ही ( सीम् ) सब प्रकार से ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् प्रभु ( वृत्रस्य ) तुम्हें रोकने वाले, विघ्नकारी अज्ञान के (मर्मणि) मर्म पर या मूल भाग पर (वज्रम्) ज्ञान रूप वज्र को ( नि अपीपतत् ) गिराता है और उसका नाश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नेमो भार्गवः। ४, ५ इन्द्र ऋषिः॥ देवताः—१—९, १२ इन्द्रः। १०, ११ वाक्॥ छन्दः—१, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५, १२ त्रिष्टुप्। १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ निचृज्जगती। ७, ८ अनुष्टुप्। ९ निचृदनुष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वृत्र के मर्म पर वज्र प्रहार

    पदार्थ

    [१] (नूनम्) = निश्चय से जो वृत्र [काम] नामक शत्रु (प्रधावता) = तुम्हारी ओर प्रकर्षेण दौड़ता है । (यः) = जो (इह) = इस जीवन में (पृथङ् न) = तुम्हारे से पृथक् नहीं होता है, अपितु (वः) = तुम्हें (अवावरीत्) = आवृत किये रहता है, तुम्हारे पर परदे के रूप में पड़ा रहता है। उस (वृत्रस्य) = ज्ञान की आवरणभूत काम-वासना के (मर्मणि) = मर्मस्थल पर (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (वज्रम्) = वज्र को (सीम्) = निश्चय से (नि अपीपतत्) = गिराता है, वज्र द्वारा उसका विनाश कर देता है। [२] काम- वासना हमारे पर निरन्तर आक्रमण करती है, हमें यह घेरे रहती है। प्रभु की कृपा से ही हम क्रियाशीलता द्वारा इस पर विजय पाने में समर्थ होते हैं। क्रियाशीलता ही वज्र है, जो इसका विनाश करती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु स्मरण के साथ सतत क्रियाशील बनकर हम वासना को विनष्ट करें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top