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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 100/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नेमो भार्गवः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र सु स्तोमं॑ भरत वाज॒यन्त॒ इन्द्रा॑य स॒त्यं यदि॑ स॒त्यमस्ति॑ । नेन्द्रो॑ अ॒स्तीति॒ नेम॑ उ त्व आह॒ क ईं॑ ददर्श॒ कम॒भि ष्ट॑वाम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । सु । स्तोम॑म् । भ॒र॒त॒ । वा॒ज॒ऽयन्तः॑ । इन्द्रा॑य । स॒त्यम् । यदि॑ । स॒त्यम् । अस्ति॑ । न । इन्द्रः॑ । अ॒स्ति॒ । इति॑ । नेमः॑ । ऊँ॒ इति॑ । त्वः॒ । आ॒ह॒ । कः । ई॒म् । द॒द॒र्श॒ । कम् । अ॒भि । स्त॒वा॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र सु स्तोमं भरत वाजयन्त इन्द्राय सत्यं यदि सत्यमस्ति । नेन्द्रो अस्तीति नेम उ त्व आह क ईं ददर्श कमभि ष्टवाम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । सु । स्तोमम् । भरत । वाजऽयन्तः । इन्द्राय । सत्यम् । यदि । सत्यम् । अस्ति । न । इन्द्रः । अस्ति । इति । नेमः । ऊँ इति । त्वः । आह । कः । ईम् । ददर्श । कम् । अभि । स्तवाम ॥ ८.१००.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 100; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O seekers of strength, power and progress in life, offer worship and adoration in honour of Indra if it is your faith in heart and soul that reality is the truth and Indra is the reality. Only some one of raw and sceptical understanding would say: Indra is non-existent, who saw him? And if none saw Indra, who and why should we adore and worship?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या अस्तित्वाचा खराखुरा निश्चय केल्यावरच स्तोता त्याची स्तुती करू शकतो. अपरिपक्व अज्ञानी मनुष्य तर त्याच्या अस्तित्वाबाबत संशयीच असतो. ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    हे नरो। यदि (सत्यम् अस्ति) यदि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से तुम्हारे मन में यह बात निश्चित हुई है तो (वाजयन्तः) तुम ऐश्वर्य की कामना करते हुए (सत्यम्) सत्य ही (इन्द्राय) प्रभु को लक्ष्य कर (सु स्तोमम्) श्रेष्ठ स्तुतिसमूह को (प्र, भरत) समर्पित करो। (इन्द्रः न अस्ति) भगवान् नहीं है यह तो (त्वः) कोई (नेमः) अपरिपक्व ज्ञानी ही (आह) कहता है। वह शंका करता है कि (ईम्) उसको (कः ददर्श) किसने देखा है? इस कारण हम (कम्) किसकी (अभिस्तवाम) प्रत्यक्ष रूप से वन्दना करें?॥३॥

    भावार्थ

    भगवान् के अस्तित्व का सत्य निश्चय किये हुए ही स्तोता उसकी वन्दना कर सकता है। अपरिपक्व ज्ञानी तो उसके अस्तित्व के प्रति भी शंकालु ही बना रहता है॥३॥

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    विषय

    जीवों के कर्मफल-भोगार्थ परमेश्वर की शरण प्राप्ति।

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! ( वाजयन्तः ) ज्ञान, ऐश्वर्य, और बल की कामना करते हुए आप लोग अब ( इन्द्राय ) उस ऐश्वर्यवान् की उपासनार्थ ( स्तोमं प्र सु भरत) स्तुतियों का अच्छी प्रकार प्रयोग करो। ( यदि सत्यं ) यदि संदेह है कि वह सत्य है तो जानो वह (सत्यम् अस्ति) अवश्य सत्य है। क्यों कि ( उ त्वः नेमः) कोई २ मनुष्य ( न इन्द्रः अस्ति इति आह) ऐश्वर्यवान् विघ्ननाशक प्रभु नहीं है ऐसा भी कहता है। (कः ईं ददर्श ) उसको कौन देखता है ? फिर हम ( कम् अभि स्तवाम ) किसकी स्तुति करें ?

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नेमो भार्गवः। ४, ५ इन्द्र ऋषिः॥ देवताः—१—९, १२ इन्द्रः। १०, ११ वाक्॥ छन्दः—१, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५, १२ त्रिष्टुप्। १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ निचृज्जगती। ७, ८ अनुष्टुप्। ९ निचृदनुष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1086
    ओ३म् प्र सु स्तोमं॑ भरत वाज॒यन्त॒ इन्द्रा॑य स॒त्यं यदि॑ स॒त्यमस्ति॑ ।
    नेन्द्रो॑ अ॒स्तीति॒ नेम॑ उ त्व आह॒ क ईं॑ ददर्श॒ कम॒भि ष्ट॑वाम ॥
    अ॒यम॑स्मि जरित॒: पश्य॑ मे॒ह विश्वा॑ जा॒तान्य॒भ्य॑स्मि म॒ह्ना ।
    ऋ॒तस्य॑ मा प्र॒दिशो॑ वर्धयन्त्यादर्दि॒रो भुव॑ना दर्दरीमि ॥
    ऋग्वेद 8/100/3-4

    भगवन् करें तेरा स्मरण, 
    तेरे चरणों में देना शरण, 
    खोजू कहाँ तुमको भगवन्,
    जानूँ हृदय में देते दर्शन, 
    किसने कहा तुम हो नहीं, 
    सृष्टि फिर बोलो किसने रची, 
    हुआ क्यों संशय हुई सोच विलय,
    हुआ चित्त चञ्चल, पूजा विफल,
    आखिर कहो भ्रम में है कौन? 
    विश्वास क्यों होता है विलोम
    भगवन् करें तेरा स्मरण, 
    तेरे चरणों में देना शरण

    तेरी स्तुति से तो परमेश्वर को, 
    कोई लाभ नहीं, 
    अन्त:स्तल से निकली हुई स्तुति का,
    लाभ लेता सुधी,
    संशय, प्रमाद, अविरति, आसक्ति 
    योग साधन से न प्रीत,
    ऐसे आलसी और नास्तिक का, 
    कैसे होगा प्रभु मीत, 
    कहता है अन्दर स्थित परमेश्वर,
    ऐ भक्त! हूँ मैं तेरे भीतर, 
    फिर क्यों ना प्यारे प्रभु को भजें? 
    दर्शन तो क्यों ना हृदय में करें, 
    चंचलता चित्त की त्याग दें, 
    योग साधन से प्रीति करें 
    भगवन् करें तेरा स्मरण, 
    तेरे चरणों में देना शरण

    ईश्वर का चिन्तन सिमरन ध्यान
    ना अज्ञानी समझे, 
    किन्तु ज्ञानी जो है ऋतगामी, 
    योग में प्रभु को स्मरें,
    जो है ईशोत्पादक शक्ति, 
    प्रत्यक्ष तो दिखती नहीं, 
    भूकम्प बाढ़ आँधी आई, 
    भयभीत हुई दृष्टि, 
    ईश्वर की है पालन शक्ति, 
    है प्रलय की भी मन्यु-शक्ति, 
    करता संहार निर्माण के लिए, 
    उपकार भी तो अनगिन किये,
    उसका है प्यार जग के लिए,
    प्राणाधारी के सुभग के लिए
    भगवन् करें तेरा स्मरण, 
    तेरे चरणों में देना शरण, 
    खोजू कहाँ तुमको भगवन् ,
    जानूँ हृदय में देते दर्शन, 
    किसने कहा तुम हो नहीं, 
    सृष्टि फिर बोलो कैसे रची, 
    हुआ क्यों संशय हुई सोच विलय,
    हुआ चित्त चञ्चल, पूजा विफल,
    आखिर कहो भ्रम में है कौन? 
    विश्वास क्यों होता है विलोम
    भगवन् करें तेरा स्मरण, 
    तेरे चरणों में देना शरण,
    भगवन् करें तेरा स्मरण, 
    तेरे चरणों में देना शरण

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :- ८.२.२०१२  १.४० pm
    राग :- खमाज
    खमाज-गायन समय रात का दूसरा प्रहर, ताल कहरवा  ८  मात्रा 
                         
    शीर्षक :- कहां भगवान ? किसने उसे देखा ? ६६२ वां भजन
    *तर्ज :- *
    704-0105

    सुधी = अत्यंत बुद्धिमान
    विलय = समा जाना
    अविरति = आसक्ति ,अशान्ति
    ऋतगामी = नियमों पर चलनेवाली
    मन्युशक्ति = कल्याणकारी क्रोध
    अनगिन = जिसे गिना ना जा सके
    सुभग = श्रेष्ठ भाग्य
     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    कहां भगवान ? किसने उसे देखा ?

    यदि तुम्हें भगवान पर आस्था है तो उसकी सच्ची हृदय के अंतःस्तल से निकली हुई स्तुति करो। तुम्हारी स्तुति से भगवान को कोई लाभ नहीं,तुम्हें ही लाभ है। किन्तु किसी ने संशय डाल दिया कि क्या परमेश्वर- परमेश्वर चिल्ला रहे हो? वह है ही नहीं।जब वह है ही नहीं तो 'कमभिष्टवाम'
    यानी किसकी स्तुति करें? उसे 'को ददर्श'
    =यानी किसने देखा है? लाखों दिखने वाले पदार्थों को मानकर दिन-रात अपना कार्य चलाने वाला कहता है उसे किसने देखा है? किसकी स्तुति करें? योग के विघ्नों में 'संशय'बड़ा विघ्न है। योगसूत्र: कहता है की भारीपन, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति=(योग साधनों में प्रीति का ना होना), भ्रान्तिदर्शन, योग भूमिका प्राप्त ना होना, चित्त की चंचलता, यह सब योग के विघ्न हैं। संशय में पड़कर अपनी पूजा पद्धति को तिलांजलि देने को भक्त तैयार हुआ कि आत्मा के अंदर बैठा आत्मा का आत्मा अंतरात्मा वह परमात्मा कहता है 'अयमस्मि जरित:'=भक्त! यह मैं हूं। तू मुझे खोजता है; देख नहीं पाता है। मत इधर- उधर भटक, वरना 'पश्य मेह'=मुझे यहीं देख। अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो तेरा अंतर्यामी आत्मा हूं। तेरे आत्मा के अंदर बैठा हूं। बाहर की ओर से आंख मूंद, अंदर की खोल। फिर तू मुझे अपने में देखेगा। मेरा सामर्थ्य जानना चाहता है? मैंने अपने बल समर्थ से समस्त संसार को दबा रखा है। (विश्वा जातान्यभ्यस्मि)
    समस्त जगत मेरे संकेत पर चलता है। तू चाहे मेरी पूजा कर, याद ना कर,किंतु (ऋतस्य मां प्रदिशो वर्धयन्ति)=ऋत के=अबाध्य सृष्टि नियम के उपदेशक मेरी बढ़ाई करते हैं।
    मूर्ख या अज्ञानी भले ही भगवान् का चिन्तन, स्मरण, ध्यान ना करें , किन्तु जो कार्यकारणरूप ऋत के प्रचारक हैं, वे देखते हैं कि कारण बिना कार्य नहीं हो सकता। कारणों में यदि कर्ता ना हो तो कार्य की उत्पत्ति किसी भान्ति नहीं हो सकती। छोटा सा पदार्थ भी चेतन के बिना नहीं बन सकता तो इतना महान जहान चेतनावान के बिना कैसे बन सकता है? और कैसे बन गया? इस सृष्टि नियम को समझकर वे तो भगवान की पूजा करते हैं और लोगों से भी कहते हैं (प्र व इन्द्राय बृहते मरुतो ब्रह्मार्चत[ऋ•८.८९.३]=तुम अपने बड़े इन्द्र की वेद द्वारा पूजा करो। भगवान की शक्ति उत्पादक शक्ति प्रत्यक्ष नहीं है,इन आंखों से नहीं देख सकते, केवल उसका अनुमान से ज्ञान होता है। उसकी पालन शक्ति भी व्यक्त नहीं है। उसका भान भी अनुमान प्रमाण कराता है। परन्तु जब विनाश देखते हैं तो चुपचाप किसी महा शक्ति की भक्ति करने पर तत्पर हो जाते हैं। भगवान का आदेश है कि मैं प्रलयंकरहून, बार-बार संसार का संहार करता हूं। संहार देखकर डर कर यदि     संहारक के पास मनुष्य जाएगा तो उसे पालक के रूप में ही पाएगा। अलौकिक संहारक और उसमें यह महान अन्तर है। अलौकिक संहारक संहार ही संहार करने में तत्पर है। 
    बाढ़ के कारण ग्राम नगर डूब रहे हैं। उसके पास कोई जाए तो वह उसे भी बाहर ले जाए। किसी कारण जंगल में आग लग गई है उसमें जो जाएगा जल जाएगा; यदि जलेगा नहीं तो झुलस अवश्य जाएगा। संसार संहारक भगवान के पास जाने पर उसका प्यार पाएगा, संसार को प्यार में परिवर्तित पाएगा। क्योंकि उसका संहार निर्माण के लिए है।

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    विषय

    प्रभु में पूर्ण विश्वास-व प्रभु-स्तवन

    पदार्थ

    [१] (वाजयन्तः) = शक्ति की कामना करते हुए तुम (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिये (स्तोमम्) = स्तुति को (प्र सु भरत) = प्रकर्षेण सम्पादित करो। (सत्यं अस्ति) = यदि प्रभु सत्य हैं, तो उनके लिये (सत्यम्) = सत्य ही स्तोम का सम्पादन करो। हृदय में प्रभु सत्ता की सत्यता में विश्वास करते हुए तुम प्रभु का हृदय से सच्चा ही स्तवन करो। [२] (नेमः उ त्वः) = अधूरे ज्ञानवाला ही कोई व्यक्ति [त्व:] (इति आह) = यह कहता है कि (इन्द्रः न अस्ति) = परमैश्वर्यशाली प्रभु नहीं है । (कः ईं ददर्श) = किसने इस प्रभु को देखा है ? (कं अभिष्टवाम्) = किसका स्तवन हम करें? [३] अपरिपक्वता में ऐसे ही विचार उठते हैं। धीमे-धीमे तपस्या की अग्नि में परिपक्व होने पर ज्ञान वृद्धि के परिणामस्वरूप वह संसार के प्रत्येक पदार्थ में प्रभु की सत्ता का अनुभव करने लगता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के लिये हृदय से सचमुच स्तवन करो, प्रभु सत्ता में पूर्ण विश्वास रक्खो । ज्ञान की अपरिपक्वता के स्थिति में प्रभु की सत्ता में सन्देह होने लगता है।

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