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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 100/ मन्त्र 10
    ऋषिः - नेमो भार्गवः देवता - वाक् छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यद्वाग्वद॑न्त्यविचेत॒नानि॒ राष्ट्री॑ दे॒वानां॑ निष॒साद॑ म॒न्द्रा । चत॑स्र॒ ऊर्जं॑ दुदुहे॒ पयां॑सि॒ क्व॑ स्विदस्याः पर॒मं ज॑गाम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । वाक् । वद॑न्ती । अ॒वि॒ऽचे॒त॒नानि॑ । राष्ट्री॑ । दे॒वाना॑म् । नि॒ऽस॒साद॑ । म॒न्द्रा । चत॑स्रः । ऊर्ज॑म् । दु॒दु॒हे॒ । पयां॑सि । क्व॑ । स्वि॒त् । अ॒स्याः॒ । प॒र॒मम् । ज॒गा॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वाग्वदन्त्यविचेतनानि राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा । चतस्र ऊर्जं दुदुहे पयांसि क्व स्विदस्याः परमं जगाम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । वाक् । वदन्ती । अविऽचेतनानि । राष्ट्री । देवानाम् । निऽससाद । मन्द्रा । चतस्रः । ऊर्जम् । दुदुहे । पयांसि । क्व । स्वित् । अस्याः । परमम् । जगाम ॥ ८.१००.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 100; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the divine voice, joyous and refulgent, settles in the heart, illuminates the mind and senses, awakens the subconscious and the unconscious, and reveals the secret potentials of the soul in divine communion, then all the four directions of space, all the four Vedic voices, and all the four layers of speech distil the light and wisdom of divine existence for the soul. What is the ultimate reach of that voice? Indra only knows.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ऐश्वर्याचा इच्छुक जीवात्मा वाक्शक्तीचा अधिष्ठाता आहे. जेव्हा त्याची ही पदार्थाची व्याख्या करण्याची शक्ती जागरूक होऊन अधिष्ठित होते तेव्हा माहीत नसलेल्या अर्थाच्या शब्दांचा अभिप्राय व माणसाला त्या शब्दांनी ज्ञात पदार्थांचा बोध होतो. चहुकडून माणसासाठी ज्ञानरूप दुधाच्या धारा स्रवित होतात. अथवा चारही वेदवाणी त्याला ज्ञान देऊ लागते. पदार्थांची व्याख्या अथवा त्याचा विस्तृत बोध करविणाऱ्या शक्ती (अथवा वेदवाणी) चे अंतिम लक्ष्य तर दूरवर आहे. दिव्य वाक्शक्ती बोध करवीतच राहते. तिचा अंत होत नाही. ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्) जब (वाक्) सकल पदार्थों को समझाने की शक्ति (अविचेतनानि) अज्ञात अर्थ वाले शब्दार्थों को (वदन्ती) स्पष्ट कहती हुई, (मन्द्रा) आनन्द देती हुई (देवानाम्) दिव्य शक्तियों में (राष्ट्री) उनकी राज्ञी रूप में (निषसाद) अवस्थित हो जाती है, तब (चतस्रः) चारों दिशायें या चारों वेदवाणियाँ (ऊर्जम्) पराक्रम अन्नादि प्रद (पयांसि) विविध ज्ञानों का (दुदुहे) दोहन करती हैं (अस्याः) इस व्याख्या की शक्ति का (परमम्) अन्तिम लक्ष्य देखो! (क्व स्वित्) कहाँ तक (जगाम) गया है॥१०॥

    भावार्थ

    ऐश्वर्य-इच्छुक जीवात्मा वाक् शक्ति का अधिष्ठाता भी है--जब उसकी पदार्थों की व्याख्या-शक्ति जागरूक हो अधिष्ठित हो जाती है, तो अविज्ञात अर्थ वाले शब्दों का अभिप्राय और उन शब्दों से ज्ञात पदार्थों का बोध मानव प्राप्त कर लेता है। चारों ओर से मानव हेतु ज्ञानरूप दुग्ध दुहा जाने लगता है अथवा चारों वेदवाणियाँ उसे ज्ञान देने लगती हैं। पदार्थों का विस्तृत बोध कराने वाली शक्ति (अथवा वेदवाणी) का अन्तिम लक्ष्य तो अत्यन्त दूर तक है। दिव्यशक्ति बोध कराती रहती है--उसका अन्त नहीं॥१०॥

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    विषय

    प्रभुवाणी का वर्णन।

    भावार्थ

    ( यत् ) जो ( वाक् ) वाणी ( राष्ट्री ) तेजस्विनी प्रभुशक्ति के समान ( मन्द्रा ) अति सुखप्रद, सबको प्रसन्न करने वाली, (देवानां) विद्वानों और सब भूतों के बीच में ( अविचेतनानि ) अविज्ञेय, निगूढ़ तत्वों को ( वदन्ती ) कहती या प्रकाश करती हुई ( देवानां मध्ये नि-ससाद ) विद्वानों के बीच विराजती है। वह ( चतस्रः ) चारों दिशाओं, चारों आश्रमों, चारों वर्णों की प्रजाओं के प्रति ( पयांसि ) मेघस्थ विद्युत् जैसे जलों को प्रदान करती है वैसे ही नाना ज्ञानों को ( दुदुहे ) प्रदान करती है, और ( ऊर्जं दुदुहे ) जैसे भूमि अन्न को उत्पन्न करती है वैसे वह भी बल को पूर्ण करती है। ( अस्याः ) इस वेदमयी वाणी का (परमं) परम रूप ( क्व स्वित् जगाम ) कहां विद्यमान है यह नहीं ज्ञात होता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नेमो भार्गवः। ४, ५ इन्द्र ऋषिः॥ देवताः—१—९, १२ इन्द्रः। १०, ११ वाक्॥ छन्दः—१, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५, १२ त्रिष्टुप्। १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ निचृज्जगती। ७, ८ अनुष्टुप्। ९ निचृदनुष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'राष्ट्री मन्द्रा' वेदवाणी

    पदार्थ

    [१] (यद्) = जब (वाग्) = यह प्रभु से दी गयी वेदवाणी (अविचेतनानि) = अप्रज्ञात अर्थों को (वदन्ती) = प्रज्ञापित करती हुई (देवानां) = निषसाद देवों के हृदय में आसीन होती है, तो यह (राष्ट्री) = उनका दीपन करनेवाली व (मन्द्रा) = आनन्द की जननी होती है। [२] यह वेदवाणी (चतस्रः) = चारों दिशाओं के प्रति, सब दिशाओं में रहनेवाले मनुष्यों के प्रति (ऊर्जं दुदुहे) = बल व प्राणशक्ति का प्रपूरण करती है। (पयांसि) = आप्यायनों व वर्धनों को करनेवाली होती है, सब अंगों की शक्ति का आप्यायन करती है। अथवा (ऊर्जं पयांसि) = अन्नों व दुग्धों को देनेवाली होती है। ज्ञान देकर मनुष्य का इन वस्तुओं के उत्पादन व अर्जन के योग्य बनाती है । (अस्याः) = इसका (परमम्) = परम, अन्तिम, सर्वोत्तम, प्रतिपाद्य विषय प्रभु तो (क्व स्वित्) = कहीं ही (जगाम) = प्राप्त होता है। अर्थात् प्रभु को तो इस वेदवाणी के द्वारा विरल व्यक्ति ही जान पाते हैं। परन्तु विरल वेदाध्येता ही इसके द्वारा उस प्रभु को प्राप्त करते हैं। ये कुछ व्यक्ति ही मोक्ष सुख को पानेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- वेदवाणी देवों के हृदय में स्थित हुई अर्थों का ज्ञान देती है, उनके हृदयों होती को दीप्त करती है, आनन्दमय बनाती है। यह सब के लिये बल प्राणशक्ति व आप्यायन (वर्धन) को प्राप्त कराती है। कुछ ज्ञानी पुरुष इसके अन्तिम प्रतिपाद्य विषय प्रभु को भी जान पाते हैं।

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