ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 100/ मन्त्र 12
सखे॑ विष्णो वित॒रं वि क्र॑मस्व॒ द्यौर्दे॒हि लो॒कं वज्रा॑य वि॒ष्कभे॑ । हना॑व वृ॒त्रं रि॒णचा॑व॒ सिन्धू॒निन्द्र॑स्य यन्तु प्रस॒वे विसृ॑ष्टाः ॥
स्वर सहित पद पाठसखे॑ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । वि॒ऽत॒रम् । वि । क्र॒म॒स्व॒ । द्यौः । दे॒हि । लो॒कम् । वज्रा॑य । वि॒ऽस्कभे॑ । हना॑व । वृ॒त्रम् । रि॒णचा॑व । सिन्धू॑न् । इन्द्र॑स्य । य॒न्तु॒ । प्र॒ऽस॒वे । विऽसृ॑ष्टाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सखे विष्णो वितरं वि क्रमस्व द्यौर्देहि लोकं वज्राय विष्कभे । हनाव वृत्रं रिणचाव सिन्धूनिन्द्रस्य यन्तु प्रसवे विसृष्टाः ॥
स्वर रहित पद पाठसखे । विष्णो इति । विऽतरम् । वि । क्रमस्व । द्यौः । देहि । लोकम् । वज्राय । विऽस्कभे । हनाव । वृत्रम् । रिणचाव । सिन्धून् । इन्द्रस्य । यन्तु । प्रऽसवे । विऽसृष्टाः ॥ ८.१००.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 100; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O friend, O soul progressive like universal Vishnu’s presence, act and advance to redeem your divinity. O light of heaven, give more light and space for the virile vitality of the soul to settle, consolidate and rise. Then we, the human and the immanent divine, together, shall eliminate evil, darkness and suffering from life, release the inhibited streams of life to flow freely, and the floods of human potential may then, we pray, flow abundantly in the blissful yajnic creation of Indra.
मराठी (1)
भावार्थ
जो विविध पदार्थ विज्ञानाला प्राप्त करून दु:ख दूर करणारे चांगले कर्म करतो तोच पुरुषार्थी माणूस आपल्या आत्म्याचा सहायक असतो. या प्रकारे तो आपली शारीरिक, मानसिक व आत्मिक सर्व बाधा नष्ट करतो व आपल्या शक्तिस्रोतांना निरंतर गतिशील बनवून परमेश्वराकडून प्रेरणा प्राप्त करून सर्वस्वी सुखी होतो. ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
जीवात्मा मानो पुरुषार्थी मानव शरीरधारी से कह रहा हो— हे सखे मेरे सहायक मित्र। (विष्णो) विद्या-विज्ञान में व्याप्त! (वितरम्) विविध दुःखों से तारने वाले [कर्मों] को (वि क्रमस्व) विशेष रूप से सम्पादित करने का प्रयास कर; (द्यौः) ज्ञान का प्रकाश (वज्राय) कर्मों के साधन वीर्य को (विष्कभे) स्थिर होने हेतु (लोकम्) प्रकाश तथा स्थान (धेहि) प्रदान करे। इस भाँति सशक्त हुए हम दोनों (वृत्रम्) विघ्न को (हनाव) नष्ट करें; (सिन्धून्) स्वभाव से प्रवहणशील किन्तु अब रुकावटों से रुके (सिन्धून्) जलों शक्ति स्रोतों को (रिणचाव) गतिशील करें (विसृष्टाः) मुक्त हुए [वे शक्ति स्रोत] (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवान् प्रभु की (प्रसवे) प्रेरणा में (यन्तु) चलें॥१२॥
भावार्थ
वही पुरुषार्थी व्यक्ति अपने आत्मा का सहायक है कि जो विविध पदार्थ विज्ञान को प्राप्त करता हुआ दुःख दूर करने वाले सुकर्म करता है। इस प्रकार वह अपनी शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक सभी बाधाओं को नष्ट कर देता है और अपने शक्ति स्रोतों को सतत गतिशील रखकर प्रभु से प्रेरणा प्राप्त करता हुआ सर्वात्मना सुखी होता है॥१२॥ अष्टम मण्डल में सौवाँ सूक्त व पाँचवाँ वर्ग समाप्त॥
विषय
प्रभुवाणी का वर्णन।
भावार्थ
हे ( विष्णो ) व्यापक शक्तिशालिन् ! ( सखे ) मित्र ! तू ( वितरं विक्रमस्व ) खूब वायु के समान विक्रम कर। हे ( द्यौः) पृथिवी हे मूर्धन्य राजसभे ! ( वज्राय विष्कमे ) वज्र, शस्त्र-बल, सैन्यादि के विशेष रूप से छावनी बनाकर बैठने के लिये ( लोकं देहि ) स्थान प्रदान कर। हम दोनों मिलकर ( वृत्रं हनाव ) बढ़ते शत्रु का मेघ को वायु-विद्युत्वत् नाश करें। और ( सिन्धून् रिणचाव ) मेघस्थ जलों के तुल्य शत्रु को वा अपने ही तीव्रगामी सैन्य पंक्तियों को स्वतन्त्र रूप से जाने दें। वे ( इन्द्रस्य प्रसवे ) सेनापति के शासन में ( विसृष्टाः ) विशेषरूप से गति करते हुए ( यन्तु ) जावें। इति पञ्चमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नेमो भार्गवः। ४, ५ इन्द्र ऋषिः॥ देवताः—१—९, १२ इन्द्रः। १०, ११ वाक्॥ छन्दः—१, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५, १२ त्रिष्टुप्। १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ निचृज्जगती। ७, ८ अनुष्टुप्। ९ निचृदनुष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
प्रकाश की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (सखे) = मित्र (विष्णो) = व्यापक प्रभो ! (वितरं विक्रमस्व) = हमारे शत्रुओं पर खूब ही आक्रमण करिये। इन काम-क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करके (द्यौः देहि) = प्रकाश को दीजिये । तथा (वज्राय विष्कभे) = क्रियाशीलतारूप वज्र को धारण करने के लिये (लोकम्) = प्रकाश को प्राप्त कराइये। आप से दिये गये प्रकाश में हम अपने कर्त्तव्यपथ को सम्यक् देखनेवाले हों। [२] हे प्रभो ! आप से मिलकर हम (वृत्रं हनाव) = वृत्र का विनाश कर पायें, काम का विध्वंस कर सकें। काम विध्वंस द्वारा (सिन्धून्) = ज्ञानप्रवाहों को (रिणचाव) = गतिवाला करें। हमारी तो एक ही कामना है कि (विसृष्टाः) = काम आदि शत्रुओं के बन्धन से मुक्त हुए हमारे सब बन्धु (इन्द्रस्य प्रसवे) = उस शासक प्रभु अनुज्ञा में (यन्तु) = गतिवाले हों। प्रभु की आज्ञानुसार सब वर्तनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे शत्रुओं का अत्यन्त विनाश करें। प्रकाश को प्राप्त करायें। उस प्रकाश करें। के अनुसार हम कर्म करें। प्रभु के साथ मिलकर वासना को विनष्ट करें, ज्ञानप्रवाहों को प्रवृत्त सब लोग वासनामुक्त होकर प्रभु के निर्देश के अनुसार चलें। वासनाओं से मुक्ति के कारण यह 'जमदग्नि' बनता है, खूब दीप्त जाठराग्निवाला व प्रज्वलित यज्ञाग्निवाला यह 'मित्रावरुणौ' को अपने अनुकूल करने के लिये यत्नशील होता है-
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal