ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 100/ मन्त्र 6
विश्वेत्ता ते॒ सव॑नेषु प्र॒वाच्या॒ या च॒कर्थ॑ मघवन्निन्द्र सुन्व॒ते । पारा॑वतं॒ यत्पु॑रुसम्भृ॒तं वस्व॒पावृ॑णोः शर॒भाय॒ ऋषि॑बन्धवे ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वा॑ । इत् । ता । ते॒ । सव॑नेषु । प्र॒ऽवाच्या॑ । या । च॒कर्थ॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । सु॒न्व॒ते । पारा॑वतम् । यत् । पु॒रु॒ऽस॒म्भृ॒तम् । वसु॑ । अ॒प॒ऽअवृ॑णोः । श॒र॒भायः॑ । ऋषि॑ऽबन्धवे ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वेत्ता ते सवनेषु प्रवाच्या या चकर्थ मघवन्निन्द्र सुन्वते । पारावतं यत्पुरुसम्भृतं वस्वपावृणोः शरभाय ऋषिबन्धवे ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वा । इत् । ता । ते । सवनेषु । प्रऽवाच्या । या । चकर्थ । मघऽवन् । इन्द्र । सुन्वते । पारावतम् । यत् । पुरुऽसम्भृतम् । वसु । अपऽअवृणोः । शरभायः । ऋषिऽबन्धवे ॥ ८.१००.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 100; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Admirable are all those acts of kindness and grace, laudable in yajnic meets of humanity, O lord of glory, Indra, which you do graciously for the meditative soul where by you reveal the climactic, intensely concentrated wealth of beatific vision and presence for the man of austere discipline in communion, brother of the omniscient, all seeing creator, the cosmic poet.
मराठी (1)
भावार्थ
ऐश्वर्यवान प्रभू साधकाची अनेक प्रकारे सहायता करतो. श्रम व तपाद्वारे स्वत:लाही त्रास घेणाऱ्या साधकाला दिव्य सुख-परम-सुख देतो. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (मघवन्) सत्करणीय ऐश्वर्ययुक्त, (इन्द्र) प्रभु! आप (सवनेषु) ऐश्वर्य प्राप्ति अथवा सुखसाधन हेतु सम्पन्न किये जा रहे अथवा सत्कर्मरूप यज्ञों में (सुन्वते) उन कर्मों के सम्पादक के लिए या जो सहायतारूप कर्म आप (चकर्थ) करते रहे हैं (ते) आपके वे (विश्वा इत्) सब ही (प्रवाच्या) शिक्षणीय हैं। (पारावतम्) मोक्षावस्था से सम्बद्ध (यत्) जो (पुरुसम्भृतम्) बहुत-सा एकत्रित (वसु) ऐश्वर्य है उसे आप (ऋषिबन्धवे) श्रम तथा तप द्वारा स्वर्गावस्था को प्राप्त होने वाले स्नेही (शरभाय) तप द्वारा आत्मपीड़क के लिये (अपऽअवृणोः) स्व संरक्षण में, ढक कर, रखते हैं॥६॥
भावार्थ
परमात्मा ऐश्वर्य साधक की अनेक प्रकार से सहायता करता है। वह श्रम तथा तप द्वारा स्वयं को पीड़ा देने वाले साधक को दिव्य सुख देता है॥६॥
विषय
परमेश्वर का ज्ञानी जनों के प्रति अनुग्रह। भक्तों के प्रति उपदेश।
भावार्थ
हे ( मघवन् ) पूजित धनयुक्त ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यप्रद ! हे तेजःस्वरूप ! सर्वद्रष्टः ! ( सवनेषु ) उपासना, स्तुति आदि के अवसरों में, या ( सवनेषु ) निर्माण किये लोकों में, ( या ) जो ( प्र-वाच्या ) उत्तम रूप से वर्णन करने योग्य ( ता ) उन नाना (विश्वा) समस्त कार्यों को ( चकर्थ ) करता है और उन को तू ( सुन्वते ) अपने उपासक के लिये ( अप अवृणोः ) स्पष्ट खोल देता है। और (यत्) जो ( पारावतम् ) परम रक्षास्थान, मोक्षमय लोक का ( वसु ) परमैश्वर्य ( पुरु-सम्भृतम् ) बहुत एकत्र है उस को भी ( ऋषि-बन्धवे शरभाय ) जगत् द्रष्टा के बन्धुस्वरूप एवं उस को प्राप्त होने वाले भक्त के सुखार्थ ( अप अवृणोः ) खोल देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नेमो भार्गवः। ४, ५ इन्द्र ऋषिः॥ देवताः—१—९, १२ इन्द्रः। १०, ११ वाक्॥ छन्दः—१, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५, १२ त्रिष्टुप्। १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ निचृज्जगती। ७, ८ अनुष्टुप्। ९ निचृदनुष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'पारावतं पुरुसम्भृतं ' वसु
पदार्थ
[१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (या) = जिन कर्मों को आप (सुन्वते) = सोमाभिषव करनेवाले, शरीर में सोम का सम्पादन करनेवाले, पुरुष के लिये चकर्थ करते हैं, (ते) = आपके (ता) = वे (विश्वा इत्) = सब कर्म ही (सवनेषु) = यज्ञों में, शुभकर्मों के प्रसंगों में (प्रवाच्या) = प्रवचन के योग्य होते हैं। यज्ञों में एकत्र होने पर लोग उन कर्मों का गायन करते हैं। [२] आप (यत्) = जो (पारावतम्) = [पारः च अवतः च] संसार सागर से पार लगानेवाला और सबका रक्षण करनेवाला, (पुरुसंभृतम्) = खूब ही सम्भरण करनेवाला [ पुरु सम्भृतं यस्मात्] (वसु) = धन है, उसे (शरभाय) = वासनाओं का हिंसन करनेवाले (ऋषिबन्धव) = वेदज्ञान को अपने साथ बाँधनेवाले ज्ञानी पुरुष के लिये (अपावृणो:) = अपावृत करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सोमरक्षण करनेवाले पुरुष को अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त कराते हैं। वासनाओं का हिंसन करनेवाले ज्ञानी पुरुष को उत्तम रक्षक व भवबन्धनछेदक वसुओं को प्राप्त कराते हैं।
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