ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 100/ मन्त्र 9
ऋषिः - नेमो भार्गवः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
स॒मु॒द्रे अ॒न्तः श॑यत उ॒द्ना वज्रो॑ अ॒भीवृ॑तः । भर॑न्त्यस्मै सं॒यत॑: पु॒रःप्र॑स्रवणा ब॒लिम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्रे । अ॒न्तरिति॑ । श॒य॒ते॒ । उ॒द्ना । वज्रः॑ । अ॒भिऽवृ॑तः । भर॑न्ति । अ॒स्मै॒ । स॒म्ऽयतः॑ । पु॒रःऽप्र॑स्रवणाः । ब॒लिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्रे अन्तः शयत उद्ना वज्रो अभीवृतः । भरन्त्यस्मै संयत: पुरःप्रस्रवणा बलिम् ॥
स्वर रहित पद पाठसमुद्रे । अन्तरिति । शयते । उद्ना । वज्रः । अभिऽवृतः । भरन्ति । अस्मै । सम्ऽयतः । पुरःऽप्रस्रवणाः । बलिम् ॥ ८.१००.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 100; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
In the liquid vitalities of the body system surrounded by living waters, the virile vitality of the spirit, the vajra, resides in the human body. For this vitality, streams of energy flowing forth in the veins and nerves bear and bring contributive forms of physical and pranic nourishment of the spirit for the soul’s rise to divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
हे शरीर वीर्याचा महान कोश अथवा समुद्रच आहे. या शरीरात अन्ननलिका, धमन्या, नसा, वायुनलिका, वायू प्रणाली कार्य वातनाड्या इत्यादी नद्यांप्रमाणे नाना रसांचे प्रस्रवण मार्ग आहेत. ज्या आपापले हव्य- आपला आणलेला रस या समुद्राला भेट करत राहतात. ज्या सर्व रसांचा अंतिम परिणाम, शरीराचे वीर्य वाढते. ही सर्व व्यवस्था समजून घेतली पाहिजे. ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(उद्ना) जल के तुल्य सौम्यता तथा व्यापकता के गुण से (अभीवृतः) सर्वात्मना आच्छादित (वज्रः) वीर्यरस (समुद्रे अन्तः) जलकोश के समान रस के कोश शरीर के अन्दर (शयत) निवास करता है; (अस्मै) इसके लिये (संयतः) सम्यङ् नियमित (पुरः प्रस्रवणाः) नाड़ियाँ (बलिम्) उपहार (भरन्ति) प्रदान करती हैं॥९॥
भावार्थ
शरीर वीर्यरस का महान् कोश अर्थात् सागर ही है। इस शरीर में अन्ननलिकायें, धमनियाँ, शिरायें, वायुनलिका, वायु प्रणालिकायें, वात नाडिकायें आदि नदियों के तुल्य विभिन्न रसों के प्रस्रवणमार्ग हैं, जो अपना-अपना हव्य इस संसार को समर्पित करते रहते हैं और सभी रसों का अन्तिम परिणाम शरीर का वीर्य है। इस व्यवस्था को समझें॥९॥
विषय
प्रभुवाणी का वर्णन।
भावार्थ
जिस प्रकार ( वज्रः ) विद्युत् रूप बल, ( उद्ना अभीवृतः ) जल से भावृत, जल में छिपा, ( समुद्रे अन्तः शेते ) समुद्र के भीतर व्याप रहा है ( अस्मै बलिम् ) उस बलशाली विद्युत् के बल को ( संयतः ) अच्छी प्रकार नियमित ( प्रस्रवणाः ) बहती जल-धाराएं ( पुरः भरन्ति ) पूर्व ही धारण किये रहती हैं। इसी प्रकार ( वज्रः ) अज्ञान का निवारक ज्ञान का प्रकाश और बल ( उद्ना ) उत्तम रीति से ( अभि-वृतः ) सर्वत्र विद्यमान ( अन्तः समुद्रे ) समुद्रवत् व्यापक, आनन्दमय प्रभु में ( शयते ) व्यापक है। ( पुरः प्रस्रवणाः ) आगे उत्तम रीति से जाने वाले, विनीत जन ( सं-यतः ) संयम से रहते हुए, ( अस्मै ) उस प्रभु के ( बलिम् ) बलयुक्त ज्ञान को ( भरन्ति ) धारण करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नेमो भार्गवः। ४, ५ इन्द्र ऋषिः॥ देवताः—१—९, १२ इन्द्रः। १०, ११ वाक्॥ छन्दः—१, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५, १२ त्रिष्टुप्। १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ निचृज्जगती। ७, ८ अनुष्टुप्। ९ निचृदनुष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
[ प्रभु प्राप्ति के तीन उपाय ] समुद्र में प्रभु का शयन
पदार्थ
[१] वह प्रभु (समुद्रे अन्तः) [स+मुद् ] = प्रसादयुक्त हृदय में, (मनः) प्रसादवाले व्यक्ति में (शयते) = शयन करता है। प्रभु का निवास प्रसन्न हृदय में ही तो होता है। वह (वज्रः) = क्रियाशील प्रभु (उद्ना) = शरीरस्थ रेतःकण रूप जलों के द्वारा (अभीवृतः) = आभिमुख्येन वृत होता है, रेतःकणों का रक्षक पुरुष ही प्रभु का वरण कर पाता है। [२] (अस्मै) = इस प्रभु की प्राप्ति के लिये (संयतः) = संयमवाले पुरुष, (पुरः प्रस्रवणा:) = आगे और आगे गतिवाले पुरुष (बलिं भरन्ति) = उत्तम कर्मों के उपहार को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु प्राप्ति का उपाय यह है कि - [क] हम मन को प्रसादयुक्त [निर्मल] करें, [ख] शरीर में रेत : कणों का रक्षण करें, [ग] कर्त्तव्य कर्मों को करने के द्वारा प्रभु का अर्चन करें।
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