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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 100/ मन्त्र 5
    ऋषिः - नेमो भार्गवः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ यन्मा॑ वे॒ना अरु॑हन्नृ॒तस्यँ॒ एक॒मासी॑नं हर्य॒तस्य॑ पृ॒ष्ठे । मन॑श्चिन्मे हृ॒द आ प्रत्य॑वोच॒दचि॑क्रद॒ञ्छिशु॑मन्त॒: सखा॑यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यत् । मा॒ । वे॒नाः । अरु॑हन् । ऋ॒तस्य॑ । एक॑म् । आसी॑नम् । ह॒र्य॒तस्य॑ । पृ॒ष्ठे । मनः॑ । चि॒त् । मे॒ । हृ॒दे । आ । प्रति॑ । अ॒वो॒च॒त् । अचि॑क्रदन् । शिशु॑ऽमन्तः । सखा॑यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यन्मा वेना अरुहन्नृतस्यँ एकमासीनं हर्यतस्य पृष्ठे । मनश्चिन्मे हृद आ प्रत्यवोचदचिक्रदञ्छिशुमन्त: सखायः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । यत् । मा । वेनाः । अरुहन् । ऋतस्य । एकम् । आसीनम् । हर्यतस्य । पृष्ठे । मनः । चित् । मे । हृदे । आ । प्रति । अवोचत् । अचिक्रदन् । शिशुऽमन्तः । सखायः ॥ ८.१००.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 100; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the wise visionaries reach on top of thought and meditation and see me, the lone presence over the glorious order of existence, my mind from the core of my heart of love speaks out: My friends blest with knowledge and vision through the power of prana beyond sufferance have called on me. (This is the voice of divinity, invitation to a higher life of cosmic vision.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रभूभक्तीची उत्कृष्ट अभिलाषा ठेवून स्तुती करणारे प्रशंसक जेव्हा तन्मयतेने प्रभूच्या स्तुतीमध्ये रमत असतात. ते आपल्या प्राणबलाने आपल्या दोषांना दूर करण्याचा प्रयत्नही करतात, तेव्हा जणू परमेश्वरही त्यांचा आवाज ऐकतो. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (हर्यतस्य) प्रेप्सित (ऋतस्य) दिव्य सत्य या यथार्थ बल के (पृष्ठे) आधार पर (आसीनम्) अवस्थित एक अद्वितीय (मा) मुझे (वेनाः) चाहने वाले विद्वान् (यन् मा आरुहन्) जब मुझ पर आरूढ़ होते हैं तब (हृदः) मेरे अन्तःकरण से ही मानो (मे) मेरी (मनः) विचारधारा (आ, प्रति, अवोचत्) उत्तर देती है कि (शिशुमन्तः) दोषहरण दूर करने वाली प्रशस्त प्राणशक्ति से युक्त (सखायः) मित्रों ने मुझे (अचिक्रदन्) पुकारा है॥५॥

    भावार्थ

    भगवान् की प्राप्ति की प्रचण्ड अभिलाषा लेकर स्तुति करने वाले स्तोता जब तन्मयता सहित स्तुति में लगते हैं; और वे अपने प्राणबल द्वारा अपने दोषों को दूर करने का प्रयत्न भी साथ-साथ करते हैं तो ऐसा लगता है कि प्रभु भी उनकी पुकार सुनता है॥५॥

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    विषय

    परमेश्वर का साक्षात् स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    ( हर्यतस्य ) इस अति सुन्दर ( ऋतस्य ) गतिमान् सत् कारणरूप प्रकृतिरूप तत्त्व के (पृष्ठे) पीठ पर ( आसीनं ) विराजे हुए ( एकम् ) एक अद्वितीय ( मा ) मुझे ( वेनाः ) चाहने वाले विद्वान् जन ( मा अरुहन् ) मुझ तक पहुंचते हैं, तब ( मनः ) उन ( का मननशील अन्तःकरण ही ( में हृदे आ प्रति अवोचत् ) मेरे हृदय को प्राप्त करने के लिये आदरपूर्वक मेरे प्रति कहता है या मुझ हृदयस्थ सुहृद् के लिये वचन-प्रतिवचन किया करता है और वे ( सखायः ) मेरे मित्र होकर ( अन्तः शिशुम् ) भीतर अन्तःकरण में व्यापक मुझ को लक्ष्य करके ( अचिक्रदन् ) स्तुति किया करते हैं। अथवा —वे ( शिशु-मन्तः सखायः मे अचिक्रदन् ) भीतर सुप्तवत् विद्यमान् मुझ व्यापक से युक्त होकर मुझे पुकारा करते हैं। जैसे कोई गोद में बच्चा लेकर उसी से घण्टों विनोद से बात किया करते हैं ठीक उसी प्रकार प्रभु को हृदय में सूक्ष्म रूप से विद्यमान अनुभव करके भक्त उसी के प्रति नाना वचन-प्रतिवचन कहा करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नेमो भार्गवः। ४, ५ इन्द्र ऋषिः॥ देवताः—१—९, १२ इन्द्रः। १०, ११ वाक्॥ छन्दः—१, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५, १२ त्रिष्टुप्। १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ निचृज्जगती। ७, ८ अनुष्टुप्। ९ निचृदनुष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    शिशु के साथ बात

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (ऋतस्य वेना:) = ऋत की, यज्ञ की कामनावाले (यत्) = जब (मा अरुहन्) = मुझे प्राप्त होते हैं, मेरा आरोहण करते हैं। उस मेरा, जो (एकम्) = अद्वितीय हूँ और (हर्यतस्य) = [हर्य गतिकान्त्योः] गतिमय चमकनेवाली इस प्रकृति के (पृष्ठे आसीनम्) = पृष्ठ पर आसीन हूँ। मेरे से अधिष्ठित प्रकृति ही तो चराचर को जन्म देती है। [२] उस समय (मनः चित् मे) = मन निश्चय से मेरा हो जाता है। यह प्रभु में लीन मन (हृदे आ प्रत्यवोचत्) = हृदय के लिये प्रतिवचन को कहता है- हृदयस्थ प्रभु के साथ बातचीत ही करता है। (सखायः) = ये प्रभु के मित्र लोग (अन्तः) = हृदय के अन्दर उस (शिशुम्) = अविद्या आदि दोषों के तनू कर्ता प्रभु को (अचिक्रदन्) = पुकारते हैं। हृदयस्थ प्रभु की आराधना करते हैं। अपने दोषों के क्षय के लिये प्रभु को पुकारते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ऋत की कामनावाले होकर प्रभु को प्राप्त हों। प्रभु से अधिष्ठित प्रकृति को ही चराचर को जन्म देती हुई जानें। प्रभु में मन को लगाकर हृदयस्थ प्रभु से बात करें, दोषों का क्षय करनेवाले उस प्रभु को ही पुकारें ।

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