ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
हु॒वे वात॑स्वनं क॒विं प॒र्जन्य॑क्रन्द्यं॒ सह॑: । अ॒ग्निं स॑मु॒द्रवा॑ससम् ॥
स्वर सहित पद पाठहु॒वे । वात॑ऽस्वनम् । क॒विम् । प॒र्जन्य॑ऽक्रन्द्यम् । सहः॑ । अ॒ग्निम् । स॒मु॒द्रऽवा॑ससम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
हुवे वातस्वनं कविं पर्जन्यक्रन्द्यं सह: । अग्निं समुद्रवाससम् ॥
स्वर रहित पद पाठहुवे । वातऽस्वनम् । कविम् । पर्जन्यऽक्रन्द्यम् । सहः । अग्निम् । समुद्रऽवाससम् ॥ ८.१०२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
पदार्थ -
(वातस्वनम्) मलिनता को बहा ले जाने वाले शोधक वेगवान् वायु तुल्य ही जिसका, 'स्वन' शब्द या उपदेश है; जो (कविम्) सर्वज्ञ है; जो (पर्जन्यक्रन्द्यम्) तृप्ति कर्ता, पापियों को परास्त करनेवाला एवं उसके समान गर्जन करने वाला; (सहः) बलस्वरूप प्रभु है, मैं उस (समुद्रवाससम्) अपने हृदयान्तरिक्ष में वास करने वाले का (हुवे) आह्वान करता हूँ॥५॥
भावार्थ - साधक की यदि यह कामना हो कि उसकी पाप-भावनायें नष्ट हों और वह स्वयं सर्व प्रकार तृप्त हो तो वह अपने अन्तःकरण में साक्षात् बलस्वरूप परमेश्वर को बसा ले॥५॥
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