ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 6
ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ स॒वं स॑वि॒तुर्य॑था॒ भग॑स्येव भु॒जिं हु॑वे । अ॒ग्निं स॑मु॒द्रवा॑ससम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । स॒वम् । स॒वि॒तुः । य॒था॒ । भग॑स्यऽइव । भु॒जिम् । हु॒वे॒ । अ॒ग्निम् । स॒मु॒द्रऽवा॑ससम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सवं सवितुर्यथा भगस्येव भुजिं हुवे । अग्निं समुद्रवाससम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । सवम् । सवितुः । यथा । भगस्यऽइव । भुजिम् । हुवे । अग्निम् । समुद्रऽवाससम् ॥ ८.१०२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
पदार्थ -
(भगस्य) मोक्षसुख के (भुजि) प्रदान करने वाले (इव) के तुल्य (सवितुः) सर्वप्रेरक की (सवम्) प्रेरणा को (यथा) सही ढंग से भोग कराने वाले उस प्रभु का मैं (समुद्रवाससम् अग्निम्) हृदयान्तरिक्ष में वास करने वाले के रूप में (आ हुवे) आह्वान करता हूँ॥६॥
भावार्थ - परमात्मा की ज्ञान प्रदाता तथा कर्मप्रेरक अद्भुत शक्ति को अपने अन्तःकरण में इस प्रयोजन से प्रज्वलित करना चाहिये कि उससे प्रेरणा मिलती रहे; और फिर मोक्षसुख तो प्राप्त होता ही है॥६॥
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