ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 7
ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒ग्निं वो॑ वृ॒धन्त॑मध्व॒राणां॑ पुरू॒तम॑म् । अच्छा॒ नप्त्रे॒ सह॑स्वते ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । वः॒ । वृ॒धन्त॑म् । अ॒ध्व॒राणा॑म् । पु॒रु॒ऽतम॑म् । अच्छ॑ । नप्त्रे॑ । सह॑स्वते ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं वो वृधन्तमध्वराणां पुरूतमम् । अच्छा नप्त्रे सहस्वते ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । वः । वृधन्तम् । अध्वराणाम् । पुरुऽतमम् । अच्छ । नप्त्रे । सहस्वते ॥ ८.१०२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
पदार्थ -
हे मानवो! (सहस्वते) बलशाली (नप्त्रे) बन्धुत्व स्थापना के लिये (वः) तुम्हारे (अध्वराणाम्) अहिंसनीय व्यवहारों को (पुरूतमम्) अतिशय रूप से (वृधन्तम्) प्रोत्साहित कर रहे (अग्निम्) ज्ञानस्वरूप अग्रणी प्रभु को (अच्छा) प्राप्त हो॥७॥
भावार्थ - प्रभु स्व उदाहरण द्वारा हमें अहिंसामय व्यवहार के लिये प्रोत्साहित करते हैं। उस नेता से हमारा जो बन्धुत्व स्थापित होता है वह अतिशय दृढ़ है। हम उसके साथ अपना बन्धुत्व स्थापित करें॥७॥
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