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ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
इति॑ स्तु॒तासो॑ असथा रिशादसो॒ ये स्थ त्रय॑श्च त्रिं॒शच्च॑ । मनो॑र्देवा यज्ञियासः ॥
स्वर सहित पद पाठइति॑ । स्तु॒तासः॑ । अ॒स॒थ॒ । रि॒शा॒द॒सः॒ । ये । स्थ । त्रयः॑ । च॒ । त्रिं॒शत् । च॒ । मनोः॑ । दे॒वाः॒ । य॒ज्ञि॒या॒सः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इति स्तुतासो असथा रिशादसो ये स्थ त्रयश्च त्रिंशच्च । मनोर्देवा यज्ञियासः ॥
स्वर रहित पद पाठइति । स्तुतासः । असथ । रिशादसः । ये । स्थ । त्रयः । च । त्रिंशत् । च । मनोः । देवाः । यज्ञियासः ॥ ८.३०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(ये त्रयः च त्रिंशत् च) जो ये तीन व तीस अर्थात् तैंतीस देवता हैं, वे (इति स्तुतासः) सभी महान् हैं इस प्रकार वर्णित होकर (रिशादसः असथा) मानवीय दोषों और उनके शत्रुओं के विध्वंस में सहायता देते हैं। क्योंकि वे (मनोः देवाः) मननशील धार्मिक मनुष्य के सब प्रकार के लौकिक-अलौकिक व्यवहारों की सिद्धि के कारण (यज्ञियासः) संगति योग्य हैं ॥२॥
भावार्थ - इस मण्डल के २८वें सूक्त के प्रथम मन्त्र में बताया गया है-“त्रिंशति त्रयस्परो देवासो बर्हिरासदन्"; शतपथ के १४वें काण्ड में इनकी गणना इस प्रकार हुई है-“अष्टौ वसवः, एकादश रुद्राः, द्वादशादित्यास्त एकत्रिंशत् (३१) इन्द्रश्चैव, प्रजापतिश्चत्रयस्त्रिंशत् ॥इत्यादि ॥२॥
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