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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    न्यर्बु॑दस्य वि॒ष्टपं॑ व॒र्ष्माणं॑ बृह॒तस्ति॑र । कृ॒षे तदि॑न्द्र॒ पौंस्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । अर्बु॑दस्य । वि॒ष्टप॑म् । व॒र्ष्माण॑म् । बृ॒ह॒तः । ति॒र॒ । कृ॒षे । तत् । इ॒न्द्र॒ । पौंस्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न्यर्बुदस्य विष्टपं वर्ष्माणं बृहतस्तिर । कृषे तदिन्द्र पौंस्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । अर्बुदस्य । विष्टपम् । वर्ष्माणम् । बृहतः । तिर । कृषे । तत् । इन्द्र । पौंस्यम् ॥ ८.३२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (बृहतः) सुविशाल (अर्बुदस्य) मेघ के (व॒र्ष्माणम्) वर्षा कर सकने में समर्थ (विष्टपम्) व्याप्ति स्थान अन्तरिक्ष पर (नि तिर) पूरी तरह से अधिकार कर ले-–इन्द्र अर्थात् वायु (तत्) इस (पौंस्यम्) पुरुषोचित साहस को (कृषे) पुरुषार्थ के साथ करता है ॥३॥

    भावार्थ - जल से भरा वायु अन्तरिक्ष में जल फैला कर वरुण बनता है; वही फिर विभिन्न अवस्थाओं में 'रुद्र', 'इन्द्र' और 'पर्जन्य' नाम से सम्बोधित किया जाता है। वर्षा करना इन्द्र का प्रमुख कार्य है ॥३॥

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