ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
यः सृबि॑न्द॒मन॑र्शनिं॒ पिप्रुं॑ दा॒सम॑ही॒शुव॑म् । वधी॑दु॒ग्रो रि॒णन्न॒पः ॥
स्वर सहित पद पाठयः । सृबि॑न्दम् । अन॑र्शनिम् । पिप्रु॑म् । दा॒सम् । अ॒ही॒शुव॑म् । वधी॑त् । उ॒ग्रः । रि॒णन् । अ॒पः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः सृबिन्दमनर्शनिं पिप्रुं दासमहीशुवम् । वधीदुग्रो रिणन्नपः ॥
स्वर रहित पद पाठयः । सृबिन्दम् । अनर्शनिम् । पिप्रुम् । दासम् । अहीशुवम् । वधीत् । उग्रः । रिणन् । अपः ॥ ८.३२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
पदार्थ -
इन्द्र के कृत्यों का वर्णन--
(यः) जो (उग्रः) उग्र प्रभाव युक्त (अपः) सर्वत्र व्याप्त जल को [विद्युत् रूप में], राज्य में व्याप्त अव्यवस्था आदि को [राजा के रूप में] और अपने जीवन में व्याप्त असंयम आदि को [जीवात्मा रूप में] (रिणन्) व्याप्त में से पृथक् कर (सृबिन्दम्) फैलकर शक्तिशाली होते हुए को (अनर्शनिम्) निष्पाप को अपने वश में किये हुए को, (पिप्रुम्) विप्र को, (दासम्) उत्पीड़क को (अहीशुवम्) कुटिल को गतिशील करने वाले को (वधीत्) नष्ट कर देता है ॥२॥
भावार्थ - अवर्षणशील घन आकाश में विस्तीर्ण होकर शक्तिशाली होता चला जाता है; वह रोगनाशक जल को रोकता है; कड़कड़ाती बिजली उसका भेदन कर जल को मुक्त करती है; राजा रूप में इन्द्र राज्य में फैले, सज्जनों को अपने नियन्त्रण में रख तंग करने वाले, स्वार्थी, कुटिलों के नेताओं का वध कर अव्यवस्था मिटाता है। जीवात्मा इसी तरह असंयम आदि को दूर कर अपनी शक्ति को उन्मुक्त करता है। इत्यादि ये सब ‘इन्द्र' के कार्य हैं ॥२॥
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