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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 17
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्र॑श्चिद्घा॒ तद॑ब्रवीत्स्त्रि॒या अ॑शा॒स्यं मन॑: । उ॒तो अह॒ क्रतुं॑ र॒घुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । चि॒त् । घ॒ । तत् । अ॒ब्र॒वी॒त् । स्त्रि॒याः । अ॒शा॒स्यम् । मनः॑ । उ॒तो इति॑ । अह॑ । क्रतु॑म् । र॒घुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रश्चिद्घा तदब्रवीत्स्त्रिया अशास्यं मन: । उतो अह क्रतुं रघुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । चित् । घ । तत् । अब्रवीत् । स्त्रियाः । अशास्यम् । मनः । उतो इति । अह । क्रतुम् । रघुम् ॥ ८.३३.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 17
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (चित्) फिर (इन्द्रः घ) नितान्त समर्थ स्वामी भी (इदम्) यह (अब्रवीत्) कहे कि (स्त्रियाः) संग चलने वाली अर्थात् जीवन संगिनी के (मनः) मन को, उसकी विचारधारा को (अशास्यम्) वश में लाना कठिन है (उतो अह) साथ ही निश्चित रूप से ही उसके (क्रतुम्) बुद्धिबल व संकल्प शक्ति को भी यदि वह (रघुम्) अल्प या तुच्छ कहता है॥१७॥

    भावार्थ - नितान्त समर्थ पति भी यदि कभी यह अनुभव करे कि उसकी भार्या की विचारधारा और उसकी विचारधारा में साम्य नहीं है तो (क्यों होना चाहिये--यह अगले मन्त्र में है)॥१७॥

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