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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 16
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    न॒हि षस्तव॒ नो मम॑ शा॒स्त्रे अ॒न्यस्य॒ रण्य॑ति । यो अ॒स्मान्वी॒र आन॑यत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । सः । तव॑ । नः॒ । मम॑ । शा॒स्त्रे । अ॒न्यस्य॑ । रण्य॑ति । यः । अ॒स्मान् । वी॒रः । आ । अन॑यत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि षस्तव नो मम शास्त्रे अन्यस्य रण्यति । यो अस्मान्वीर आनयत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि । सः । तव । नः । मम । शास्त्रे । अन्यस्य । रण्यति । यः । अस्मान् । वीरः । आ । अनयत् ॥ ८.३३.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (यः वीरः) जो वीर जन (अस्मान्) हम मन, इन्द्रिय आदि को (आनयत्) अपने वश में कर लेता है, (सः) वह (न हि तव) न ही तेरे (नो मम) न मेरे (अन्यस्य) न किसी अन्य के (शास्त्रे) शासन में (रण्यति) प्रसन्न रहता है॥१६॥

    भावार्थ - वीर व्यक्ति के मन-इन्द्रिय आदि जब तक उसके अपने वश में रहते हैं तभी तक वह आनन्द पाता है, पराये नियन्त्रण में वह सुखी नहीं होता॥१६॥

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