ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 40/ मन्त्र 3
ऋषिः - नाभाकः काण्वः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ता हि मध्यं॒ भरा॑णामिन्द्रा॒ग्नी अ॑धिक्षि॒तः । ता उ॑ कवित्व॒ना क॒वी पृ॒च्छ्यमा॑ना सखीय॒ते सं धी॒तम॑श्नुतं नरा॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठता । हि । मध्य॑म् । भरा॑णाम् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । अ॒धि॒ऽक्षि॒तः । ता । ऊँ॒ इति॑ । क॒वि॒ऽत्व॒ना । क॒वी इति॑ । पृ॒च्छ्यमा॑ना । स॒खी॒ऽय॒ते । सम् । धी॒तम् । अ॒श्नु॒त॒म् । नरा॑ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता हि मध्यं भराणामिन्द्राग्नी अधिक्षितः । ता उ कवित्वना कवी पृच्छ्यमाना सखीयते सं धीतमश्नुतं नरा नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठता । हि । मध्यम् । भराणाम् । इन्द्राग्नी इति । अधिऽक्षितः । ता । ऊँ इति । कविऽत्वना । कवी इति । पृच्छ्यमाना । सखीऽयते । सम् । धीतम् । अश्नुतम् । नरा । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 40; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(ता) वे उपरोक्त (इन्द्राग्नी) इन्द्र तथा अग्नि (हि) निश्चय ही (भराणाम्) हमारे जीवन संघर्षों के (मध्यम्) आभ्यन्तर भाग में (अधि क्षितः) अध्यक्षरूप में स्थित रहते हैं--जीवन में संघर्ष आने पर हमारे संरक्षण के उत्तरदायी बनते हैं। (ता) वे दोनों (उ) ही (कवी) क्रान्त द्रष्टा (पृछ्यमाना) आदेश के लिए अथवा सन्देहनिवारण हेतु पूछे गये (कवित्वना) क्रान्तदर्शिता के द्वारा (सखीयते) मित्र के समान आचरण करने वाले जन हेतु, उसके सामने (सन्धीतम्) संतोषप्रद, कल्याणकारी, मननपूर्वक सुनिश्चित विचारधारा का (अश्नुतम्) संचय कर देते हैं॥३॥
भावार्थ - हमारे जीवन-संघर्ष के अधिष्ठाता एवं संचालक क्षात्रबल और ब्राह्मबल दोनों हैं। शंकाएं खड़ी होने पर हम इन दोनों शक्तियों से युक्त विद्वानों पर निर्भर रहते हैं और वे हमें अपनी भली-भाँति सोची-समझी विचारधारा प्रदान कर हमारा मार्ग-दर्शन करते हैं॥३॥
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