ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 27
यो म॑ इ॒मं चि॑दु॒ त्मनाम॑न्दच्चि॒त्रं दा॒वने॑ । अ॒र॒ट्वे अक्षे॒ नहु॑षे सु॒कृत्व॑नि सु॒कृत्त॑राय सु॒क्रतु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयः । मे॒ । इ॒मम् । चि॒त् । ऊँ॒ इति॑ । त्मना॑ । अम॑न्दत् । चि॒त्रम् । दा॒वने॑ । अ॒र॒ट्वे । अक्षे॑ । नहु॑षे । सु॒ऽकृत्व॑नि । सु॒कृत्ऽत॑राय । सु॒ऽक्रतुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो म इमं चिदु त्मनामन्दच्चित्रं दावने । अरट्वे अक्षे नहुषे सुकृत्वनि सुकृत्तराय सुक्रतु: ॥
स्वर रहित पद पाठयः । मे । इमम् । चित् । ऊँ इति । त्मना । अमन्दत् । चित्रम् । दावने । अरट्वे । अक्षे । नहुषे । सुऽकृत्वनि । सुकृत्ऽतराय । सुऽक्रतुः ॥ ८.४६.२७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 27
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(यः) जो (सुक्रतुः) अपनी सुप्रज्ञा व शुभकर्मों के द्वारा सुबुद्धि व सुकर्मों का प्रेरक प्रभु (अरट्वे) [अ-लट्वे] बाल्यपन से मुक्त, (अक्षे) व्यवहार कुशल [ऋ० द०], (सुकृत्वानि) शुभ कर्म करने का संकल्प धारण किये हैं (नहुषे) मनुष्य में (सुकृत्तराय) और अधिक सुष्ठुकर्म की प्रवृत्ति हेतु तथा (दावने) दानशीलता बढ़ाने के लिये (मे) मेरे (इमम्) इस पूर्ववर्णित (चित्रम्) आश्चर्यजनक रूप से भाँति-भाँति के ऐश्वर्य का (त्मना) स्वतः (अमन्दत्) भोग कराता है॥२७॥
भावार्थ - परमात्मा ने संसार में सुकर्म करने वाले को जो भोग साधन दिए हुए हैं, वे सब साधन इस प्रयोजन से दिए हैं कि उपभोक्ता खुद भी दानी बने॥२७॥
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