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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 50/ मन्त्र 10
    ऋषिः - पुष्टिगुः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    यथा॒ कण्वे॑ मघव॒न्मेधे॑ अध्व॒रे दी॒र्घनी॑थे॒ दमू॑नसि । यथा॒ गोश॑र्ये॒ असि॑षासो अद्रिवो॒ मयि॑ गो॒त्रं ह॑रि॒श्रिय॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । कण्वे॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । मेधे॑ । अ॒ध्व॒रे । दी॒र्घऽनी॑थे । दमू॑नसि । यथा॑ । गोऽश॑र्ये । असि॑सासः । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । मयि॑ । गो॒त्रम् । ह॒रि॒ऽश्रिय॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा कण्वे मघवन्मेधे अध्वरे दीर्घनीथे दमूनसि । यथा गोशर्ये असिषासो अद्रिवो मयि गोत्रं हरिश्रियम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । कण्वे । मघऽवन् । मेधे । अध्वरे । दीर्घऽनीथे । दमूनसि । यथा । गोऽशर्ये । असिसासः । अद्रिऽवः । मयि । गोत्रम् । हरिऽश्रियम् ॥ ८.५०.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 50; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    हे (मघवन्) आदरणीय ऐश्वर्य के स्वामी भगवन्! आपने यथा जिस तरह अथवा जितनी मात्रा में (कण्वे) स्तुतिकर्ता मेधावी के लिए, (मेधे) विद्वानों के संगम हेतु, (अध्वरे) अहिंसक सत्कर्म के लिए, (दीर्घनीथे) सुदीर्घ काल तक नेतृत्वक्षम के निमित्त, (गोशर्ये) इन्द्रियप्रेरक साधक हेतु, (असिषासः) प्रदान किया; उसी प्रकार अथवा उतनी मात्रा में तो अवश्य ही, हे (अद्रिवः) अतिशय प्रशंसित ऐश्वर्य प्रभु! (मयि) मुझ साधक के अधिकार में मेरा (गोत्रम्) इन्द्रियों का समूह (हरिश्रियम्) मुझे आपकी दिशा में ले चलने के गुण से शोभित करें॥१०॥

    भावार्थ - स्तुति करने वाले विद्वान् आदि को प्रभु से सामर्थ्य प्राप्त होता है; इन्द्रियों को सफल बनाने का लक्ष्य रखने वाला साधक भी इस प्रकार साधना करे कि इन्द्रियाँ उसके वश में हों, जिससे वह भगवान् से सायुज्य प्राप्त कर सके॥१०॥ अष्टम मण्डल में पचासवाँ सूक्त व सतरहवाँ वर्ग समाप्त।

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