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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 55/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कृशः काण्वः देवता - प्रस्कण्वस्य दानस्तुतिः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    श॒तं श्वे॒तास॑ उ॒क्षणो॑ दि॒वि तारो॒ न रो॑चन्ते । म॒ह्ना दिवं॒ न त॑स्तभुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम् । श्वे॒तासः॑ । उ॒क्षणः॑ । दि॒वि । तारः॑ । न । रो॒च॒न्ते॒ । म॒ह्ना । दिव॑म् । न । त॒स्त॒भुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतं श्वेतास उक्षणो दिवि तारो न रोचन्ते । मह्ना दिवं न तस्तभुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतम् । श्वेतासः । उक्षणः । दिवि । तारः । न । रोचन्ते । मह्ना । दिवम् । न । तस्तभुः ॥ ८.५५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 55; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (शतम्) सैकड़ों (श्वेतासः) शुभ रंग के (उक्षणः) वीर्यसेक्ता, अतएव संतान द्वारा वृद्धिकारक वृषभ आदि जो (रोचन्ते) शोभित होते हैं, ऐसे (न) जैसे कि (दिवि) आकाश में (तारः) तारे चमकते हैं। (मह्ना) अपने महत्त्व द्वारा वे (दिवं न) मानो आकाश को ही (तस्तभुः) थामे हुए हैं॥२॥

    भावार्थ - इन्द्र के ऐश्वर्य में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पदार्थ 'उक्षा' हैं, जिसका अर्थ है सेचन के द्वारा वृद्धि कराने वाले। इनमें सभी उत्पादक शक्तियों वाले पदार्थ समाहित हैं ॥ २॥

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