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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पृषध्रः काण्वः देवता - प्रस्कण्वस्य दानस्तुतिः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्रति॑ ते दस्यवे वृक॒ राधो॑ अद॒र्श्यह्र॑यम् । द्यौर्न प्र॑थि॒ना शव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । ते॒ । द॒स्य॒वे॒ । वृ॒क॒ । राधः॑ । अ॒द॒र्शि॒ । अह्र॑यम् । द्यौः । न । प्र॒थि॒ना । शवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति ते दस्यवे वृक राधो अदर्श्यह्रयम् । द्यौर्न प्रथिना शव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । ते । दस्यवे । वृक । राधः । अदर्शि । अह्रयम् । द्यौः । न । प्रथिना । शवः ॥ ८.५६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 56; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    हे (दस्यवे) दस्युओं को नष्ट करने हेतु (वृक) वृक के तुल्य भयङ्कर। (ते राधः) तेरे ऐश्वर्य को मैंने (अह्रयम्) शर्म आदि दोषों से रहित (प्रति अदर्शि) समझा। ते (शवः) तेरा बल (द्यौः, न) आकाश के तुल्य (प्रथिना) व्यापक है॥१॥

    भावार्थ - प्रभु का उन्मुक्त गुण-कीर्तन करने वाले स्तोता को जो वैभव मिलेगा, वह उसे लज्जित नहीं करता; ऐसे स्तोता की दानशीलता के कारण उसका प्रभाव चतुर्दिक् विस्तृत हो जाता है॥१॥

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