ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 55/ मन्त्र 5
ऋषिः - कृशः काण्वः
देवता - प्रस्कण्वस्य दानस्तुतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आदित्सा॒प्तस्य॑ चर्किर॒न्नानू॑नस्य॒ महि॒ श्रव॑: । श्यावी॑रतिध्व॒सन्प॒थश्चक्षु॑षा च॒न सं॒नशे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । इत् । सा॒प्तस्य॑ । च॒र्कि॒र॒न् । न । अनू॑नस्य । महि॑ । श्रवः॑ । श्यावीः॑ । अ॒ति॒ऽध्व॒सन् । प॒थः । चक्षु॑षा । च॒न । स॒म्ऽनशे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदित्साप्तस्य चर्किरन्नानूनस्य महि श्रव: । श्यावीरतिध्वसन्पथश्चक्षुषा चन संनशे ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । इत् । साप्तस्य । चर्किरन् । न । अनूनस्य । महि । श्रवः । श्यावीः । अतिऽध्वसन् । पथः । चक्षुषा । चन । सम्ऽनशे ॥ ८.५५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 55; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
पदार्थ -
(आदित्) इसके बाद तो उन्होंने (साप्तस्य) सातों प्रकार के ऐश्वर्य के स्वामी तथा (अनूनस्य) सब प्रकार की कमियों से रहित के (श्रवः) यश को भी (महि) आदरणीय (न) नहीं (चक्रिरन्) ठहराया। बात यह है कि (श्यावीः) अन्धेरे (पथः) रास्तों को अति (ध्वसन्) पार करता हुआ (चक्षुषा चन) नेत्र तक से भी नहीं (संनशे) उन मार्गों को आच्छादित कर सकता है॥५॥
भावार्थ - अँधेरे रास्ते पर प्रकाश की कमी में नेत्र भी काम नहीं देते--प्रभु भक्त का ऐश्वर्य सभी प्रकार के ऐश्वर्यों से बढ़ा-चढ़ा होता है--उसके अभाव में अन्य ऐश्वर्य एक प्रकार से फीका ही है; उसी प्रकार जैसे कि प्रकाश बिना आँख भी व्यर्थ है॥५॥ अष्टम मण्डल में पचपनवाँ सूक्त व छब्बीसवाँ वर्ग समाप्त।
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