ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 55/ मन्त्र 4
ऋषिः - कृशः काण्वः
देवता - प्रस्कण्वस्य दानस्तुतिः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
सु॒दे॒वाः स्थ॑ काण्वायना॒ वयो॑वयो विच॒रन्त॑: । अश्वा॑सो॒ न च॑ङ्क्रमत ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽदे॒वाः । स्थ॒ । का॒ण्वा॒य॒नाः॒ । वयः॑ऽवयः । वि॒ऽच॒रन्तः॑ । अश्वा॑सः । न । च॒ङ्क्र॒म॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुदेवाः स्थ काण्वायना वयोवयो विचरन्त: । अश्वासो न चङ्क्रमत ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽदेवाः । स्थ । काण्वायनाः । वयःऽवयः । विऽचरन्तः । अश्वासः । न । चङ्क्रमत ॥ ८.५५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 55; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
पदार्थ -
(वयोवयः) कमनीय जीवन में (विचरन्तः) विचरण करते हुए, (काण्वायनाः) शिष्य-प्रशिष्यों समेत हे स्तोताओ! (सुदेवाः) शुभ गुण कर्म स्वभावों से दीप्यमान होवो (अश्वासः न) अश्वों के समान वीरतापूर्वक (चङ्क्रमत) लगातार चलते रहो॥४॥
भावार्थ - शुभ गुण, कर्म व स्वभाव से युक्त स्तोताओं का समूह भी प्रमुख स्तोता का एक प्रकार का वैभव ही है। प्रकृष्ट स्तोता अकेला नहीं होता; उसका एक समूह, परिवार का परिवार ही, होता है। यह भी उसकी विभूति है॥४॥
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