ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 56/ मन्त्र 5
ऋषिः - पृषध्रः काण्वः
देवता - अग्निसूर्यौ
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अचे॑त्य॒ग्निश्चि॑कि॒तुर्ह॑व्य॒वाट् स सु॒मद्र॑थः । अ॒ग्निः शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॑ बृ॒हत्सूरो॑ अरोचत दि॒वि सूर्यो॑ अरोचत ॥
स्वर सहित पद पाठअचे॑ति । अ॒ग्निः । चि॒कि॒तुः । ह॒व्य॒ऽवाट् । सः । सु॒मत्ऽर॑थः । अ॒ग्निः । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑ । बृ॒हत् । सूरः॑ । अ॒रो॒च॒त॒ । दि॒वि । सूर्यः॑ । अ॒रो॒च॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अचेत्यग्निश्चिकितुर्हव्यवाट् स सुमद्रथः । अग्निः शुक्रेण शोचिषा बृहत्सूरो अरोचत दिवि सूर्यो अरोचत ॥
स्वर रहित पद पाठअचेति । अग्निः । चिकितुः । हव्यऽवाट् । सः । सुमत्ऽरथः । अग्निः । शुक्रेण । शोचिषा । बृहत् । सूरः । अरोचत । दिवि । सूर्यः । अरोचत ॥ ८.५६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 56; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
पदार्थ -
(चिकितुः) ज्ञानी हव्यवाट् दातव्य व अदातव्य पदार्थों, भावों, विचारों इत्यादि को एक से दूसरे स्थान, एक से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाने (अग्निः) अग्नि जैसा तेजस्वी विद्वान् पुरुष (अचेति) ज्ञान देता है; (सः) वह (सुमद्रथः) स्वयं गतिमान् है। (अग्निः) विद्वान् पुरुष जो (बृहत् सूरः) महान् प्रेरक है, वह (शुक्रेण) पावन (शोचिषा) विज्ञान के साथ (दिवि) ज्ञान के प्रकाश में (अरोचत) रुचिकर लगता है; ऐसे ही जैसे कि (दिवि) द्युलोक में स्थित (सूर्यः) सूर्य (अरोचत) सब को प्रिय लगता है॥५॥
भावार्थ - ज्ञानी विद्वान् का कर्त्तव्य है कि अपने ज्ञान को सब जगह बाँटे; इसके लिये स्वयं सक्रिय हो; द्युलोक स्थित सूर्य अपना प्रकाश व ताप सर्वत्र पहुँचाता है और सब का प्यार पाता है, इसी तरह विद्वान् अपने ज्ञानरूपी प्रकाश को बिखेरता हुआ भला लगता है॥५॥ अष्टम मण्डल में छप्पनवाँ सूक्त व सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त।
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